
15वीं सदी में पुरी के ग्रैंड रोड पर रघुनाथ दास नामक एक पनवारी की छोटी-सी दुकान थी। वह अत्यंत श्रद्धालु और सरल हृदय व्यक्ति थे। एक दिन, प्रसिद्ध उड़िया रामायण के कवि बलराम दास ने देखा कि दो बालक, जिनमें एक सांवला और दूसरा गोरा था, रघुनाथ दास की दुकान पर आए और पान लगाने को कहा। रघुनाथ दास ने बालकों को पान लगाकर दिया और वे दोनों कुछ भी भुगतान किए बिना पान खाकर चले गए। कवि बलराम दास ने कई दिनों तक नोटिस, किया वे दोनों लड़के मंदिर के द्वार बंद होने से ठीक पहले आते हैं। एक दिन उन्होंने उन दोनों का पीछा किया तो दोनों बालकों को सिंह द्वार के बाद गायब होते देखा। कवि बलराम दास ने पान विक्रेता रघुनाथ दास जी से पूछा कि वे उन लड़कों से पान के पैसे क्यों नहीं लेते हैं?
रघुनाथ ने भोलेपन से कहा, “उनके आकर्षण में मैं पैसे माँगना भूल जाता हूँ।” कवि ने सलाह दी, “कल से पैसे अवश्य माँगना।” अगले दिन जब लड़के आए, तो रघुनाथ ने पैसे माँगे। लड़कों ने कहा, “आज पैसे नहीं हैं, कल लाएँगे। यदि विश्वास न हो, तो हमारे अंगवस्त्र रख लो।” रघुनाथ ने वस्त्र स्वीकार कर लिए।
अगले दिन जब मंदिर के द्वार खुले, तो वहां के पुजारियों और श्रद्धालुओं ने देखा कि भगवान के अंगवस्त्र गायब थे। इस खबर से पूरे नगर में सनसनी फैल गई और राजा ने तुरंत जांच के आदेश दिए। जब कवि बलराम दास को यह ज्ञात हुआ, तो वे राजा के पास पहुंचे और कहा कि वे अंगवस्त्र रघुनाथ दास की दुकान में पाए जा सकते हैं।
राजा स्वयं अपने सैनिकों के साथ रघुनाथ दास की दुकान पर पहुंचे। वहां उन्होंने सचमुच भगवान के अंगवस्त्र देखे। राजा ने रघुनाथ दास से पूछा कि यह वस्त्र उनके पास कैसे आए? रघुनाथ दास ने संपूर्ण घटना सुनाई, जिसे सुनकर राजा और उपस्थित सभी लोग स्तब्ध रह गए।
राजा ने भाव-विभोर होकर रघुनाथ दास को गले लगा लिया और कहा, “रघुनाथ, तुम असाधारण रूप से भाग्यशाली हो। इतने संतों और भक्तों ने महाप्रभु के साक्षात दर्शन की इच्छा की, परंतु वे सफल नहीं हो सके। और तुम, जो एक साधारण पनवारी हो, इतने दिनों तक महाप्रभु को साक्षात देखते रहे। तुम धन्य हो, तुम्हारा पान धन्य है। महाप्रभु स्वयं महल से नीचे उतरकर तुम्हारे पान का स्वाद लेने आए!”