
पुरी धाम में भगवान जगन्नाथ के सिंह द्वार के समीप एक विशाल छतरी के नीचे रघुदास नामक एक महान रामभक्त निवास करते थे। वे दिन-रात भगवान राम के स्मरण में लीन रहते थे।
एक दिन, जब रघुदास भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए मंदिर गए, तो उन्होंने वेदी पर कुछ विलक्षण देखा, भगवान जगन्नाथ के स्थान पर उन्हें भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी के दर्शन हुए। यह दिव्य दृश्य देखकर रघुदास का मन अत्यंत भावुक हो गया। उस क्षण से उन्होंने भगवान जगन्नाथ को ही अपने आराध्य भगवान रामचंद्र का रूप मान लिया और उनके प्रति एक सख्य-भाव (मित्रता पूर्ण भक्ति) विकसित हो गया।
एक दिन, रघुदास ने भगवान जगन्नाथ के लिए अपने हाथों से अत्यंत प्रेमपूर्वक फूलों की एक माला बनाई। परंतु वह मंदिर में उपलब्ध सामान्य धागे की बजाय केले के पेड़ की छाल से बनी डोरी से बंधी थी। जब उन्होंने वह माला मंदिर के पुजारी को भेंट की, तो पुजारी ने यह कहकर माला अस्वीकार कर दी कि केले की छाल मंदिर में निषिद्ध है।
रघुदास का हृदय टूट गया। वह अत्यंत निराश हो गया और माला को लेकर वापस अपने स्थान पर लौट गया।
उसी दिन संध्या की आरती के समय पुजारी ने देखा कि भगवान के शरीर पर कोई भी माला टिक नहीं रही है। हर फूल गिर रहा था। वे घबरा गए और समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्यों हो रहा है। उन्होंने अपने आप को दोषी समझा और व्रत लेकर मंदिर में ही सोने का निश्चय किया, ताकि भगवान स्वप्न में कोई संकेत दें।
रात्रि में भगवान जगन्नाथ स्वयं पुजारी के स्वप्न में प्रकट हुए और बोले:
“मेरे भक्त रघुदास ने अत्यंत प्रेम और भक्ति के साथ मेरे लिए एक माला बनाई थी। तुमने केवल उसके बाहरी स्वरूप को देखकर उसे अस्वीकार कर दिया, लेकिन उसके भीतर की भक्ति और प्रेम को न समझ सके। अब मेरा भक्त भूखा, रोता हुआ माला लिए पड़ा है। जब तक उसकी माला मुझे अर्पित नहीं की जाती, मैं कोई दूसरी माला स्वीकार नहीं कर सकता।”
सुबह होते ही मुख्य पुजारी अन्य सेवकों के साथ रघुदास के पास पहुंचे। उन्होंने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और उनसे वही माला भगवान को अर्पित करने का आग्रह किया।
रघुदास की आँखों में आँसू आ गए — पर यह आँसू दुख के नहीं, भगवान की दया और करुणा के अनुभव से थे। उन्होंने वही माला भगवान को अर्पित की, और इस बार भगवान ने उसे प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लिया।भगवान जगन्नाथ ने मंदिर की माला क्यों ठुकरा दी?