देहरादून: आज, 7 सितंबर 2025 को साल का आखिरी चंद्र ग्रहण लग रहा है, जो भारत में भी दिखाई देगा।भारतीय समयानुसार, ग्रहण रात 9 बजकर 58 मिनट पर शुरू होगा और देर रात 1 बजकर 26 मिनट पर समाप्त होगा। ग्रहण शुरू होने से 9 घंटे पहले, यानी दोपहर 12 बजकर 57 मिनट से सूतक काल प्रभावी हो गया है, जिसके चलते देशभर के मंदिरों के कपाट बंद कर दिए गए हैं। चंद्र ग्रहण हमेशा पूर्णिमा के दिन ही होता है और इस दौरान देवी-देवताओं के दर्शन करना अशुभ माना जाता है, इसलिए मंदिरों में किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं की जाती है।
क्या है पौराणिक कथा?
धार्मिक मान्यताओं और पुराणों के अनुसार, ग्रहण का संबंध समुद्र मंथन की प्रसिद्ध कथा से जुड़ा है। स्कंद पुराण के अनुसार, जब देवताओं और दानवों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया, तो भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत पान कराना शुरू कर दिया। उस समय स्वर्भानु नामक एक दैत्य देवताओं का वेश धारण कर उनकी पंक्ति में बैठ गया और उसने अमृत पान कर लिया।
सूर्य और चंद्र देव ने उस दैत्य को पहचान लिया और तुरंत भगवान विष्णु को इसकी सूचना दी। क्रोधित होकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से स्वर्भानु का सिर धड़ से अलग कर दिया। हालांकि, अमृत की कुछ बूंदें गले से नीचे उतर जाने के कारण उसकी मृत्यु नहीं हुई।उसका सिर वाला भाग ‘राहु’ और धड़ वाला भाग ‘केतु’ के नाम से अमर हो गया। मान्यता है कि सूर्य और चंद्रमा द्वारा अपनी पोल खोले जाने के कारण राहु-केतु इन दोनों को अपना शत्रु मानते हैं और इसी वैर भाव के चलते समय-समय पर चंद्रमा और सूर्य को ग्रसते हैं, जिसे ग्रहण कहा जाता है।
स्कंद पुराण के अवंति खंड में यह भी वर्णित है कि उज्जैन राहु और केतु की जन्मभूमि है और महाकाल वन में ही अमृत का वितरण हुआ था।ज्योतिष में राहु और केतु को छाया ग्रह माना जाता है जो एक ही राक्षस के शरीर से जन्मे हैं।
क्या कहता है खगोल विज्ञान?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, चंद्र ग्रहण एक सामान्य खगोलीय घटना है। यह तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती है। इस स्थिति में पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है, जिससे सूर्य की किरणें सीधे चंद्रमा तक नहीं पहुंच पातीं और चंद्रमा का पूरा या आंशिक भाग ढक जाता है। इसी खगोलीय घटना को चंद्र ग्रहण कहते हैं। सूर्य ग्रहण के विपरीत, चंद्र ग्रहण को नंगी आंखों से देखना पूरी तरह सुरक्षित है।
इस प्रकार, जहां खगोल विज्ञान ग्रहण को पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा की स्थिति से जोड़कर समझाता है, वहीं धार्मिक मान्यताएं इसे राहु-केतु की पौराणिक कथा से जोड़कर देखती हैं, जो आज भी भारतीय संस्कृति में गहरी जड़ें जमाए हुए है।
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