
ओडिशा के पुरी धाम में भगवान जगन्नाथ का श्रीमंदिर स्थापित है. कहते हैं कि सागर तट पर युगों-युगों से भगवान नीलमाधव का पुरुषोत्तम क्षेत्र मौजूद है और इसका जिक्र भविष्य पुराण में भी है. इसी आधार पर भारत भूमि में चार धाम स्थापित हैं. उत्तर में बद्रीनाथ जो कि पहाड़ों में है. पश्चिम में सागर तट पर द्वारिका, पूर्व में सागर तट पर जगन्नाथ और दक्षिण में सागर तट पर रामेश्वरम. साधु समाज में एक और बात कही जाती है कि सतयुग में भगवान चमत्कारी अवतार लेकर आए. कभी मछली बने, कभी सिंह तो कभी वराह. त्रेता में वह संत हित के लिए खुद ऋषि बनकर परशुराम बनकर आए. फिर वह जन-जन के राम बने. द्वापर में वह भक्त, सखा, मित्र और धर्म के रक्षक बनकर आए, लेकिन उन्हें भक्तों की भक्ति देखने के लिए भक्त भी बनना था. वह अपने भक्तों के भी भक्त बनना चाहते थे, इसलिए वह जगन्नाथ बन कर आए.
इस रूप में न उनके हाथ हैं और न ही पैर. केवल बड़ी-बड़ी आखें हैं. वह चाहते हैं कि उनकी नजरों से कोई भक्त रह न जाए. वह कहीं नहीं जाना चाहते हैं, बस जो उनके पास आए वह उसके होकर रह जाना चाहते हैं. इसीलिए भक्त होते हुए भी वह जगन्नाथ हैं. श्रद्धालु जिस रूप में सच्चे हृदय से उनके दर्शन करना चाहते हैं, भगवान वैसे ही रूप में उन्हें दर्शन देते हैं. पुरी धाम में इससे जुड़ी एक लोककथा भी काफी प्रचलित है. यह कथा भगवान की ‘अनासर विधि’ से जुड़ी हुई है.
कथा के मुताबिक, भगवान ने अपने एक भक्त को श्रीगणेश का अवतार लेकर दर्शन दिए थे. उनकी यह कथा गणेश चतुर्थी के साथ भी जुड़ती है और गणेश पूजा के दौरान पुरी व अन्य पूजा पंडालों में सुनाई भी जाती है.पुराणों में लिखा है कि कलियुग में भगवान नीलमाधव भक्तों को उनकी इच्छा के अनुसार दर्शन देते हैं. वह भक्तों के बीच ही निवास करेंगे. इसी आधार पर यह कथा कही जाती है. कहते हैं कि 16वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के एक गांव में एक मूर्तिकार गणेश भक्त गणपति भट्ट रहते थे. वह दिन-रात गणपति बप्पा की भक्ति में ही लीन रहते थे. एक समय वह तीर्थ यात्रा पर निकले. इस तरह हर ओर की यात्रा के बाद वह पुरी (ओडिशा) पहुंचे.
यहां भट्ट जी को बहुत निराशा हुई, क्योंकि पुरी में गणेश जी का कोई मंदिर ही नहीं था. ऐसा देखकर वह विचलित हो गए. यह उनकी यात्रा का अंतिम पडाव था और वह इस दौरान अपने ईष्ट गणपति बप्पा के दर्शन करना चाहते थे. वह बप्पा की भक्ति में इतने मग्न थे कि भगवान जगन्नाथ के मंदिर में बिना दर्शन किए ही पुरी की यात्रा छोड़ कर लौटने लगे. इस तरह उनकी चार धाम की यात्रा भी अधूरी हो रही थी. यहां तक कि पुरी में भगवान का महाप्रसाद भी उन्होंने ग्रहण नहीं किया.
वह इसी तरह विचलित होकर लौट रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक ब्राह्मण युवक मिला. उस युवक ने भट्ट जी को इस तरह विचलित हुए देखा तो उसकी वजह पूछने लगा. तब गणेश भक्त ने कहा- मैं यहां अपने प्रभु के दर्शन करने आया था, लेकिन यहां तो उनका कोई भी मंदिर नहीं है. इसके बाद उन्होंने कहा कि मैं खुद ही यहां एक मंदिर तराशूंगा. इस पर वह ब्राह्मण जोर-जोर से हंसने लगा. फिर उसने कहा, शुभ काम में देरी क्यों? आप यहीं अभी ही गणेश प्रतिमा का निर्माण करना शुरू कीजिए.
ब्राह्मण युवक की बात में कुछ ऐसा जादू था कि गणपति भट्ट ने गणेश मूर्ति बनानी शूरू कर दी. वह सबकुछ बनाते हुए जब मूर्ति का चेहरा बनाते तो कभी आंखें गोल हो जातीं, कभी बहुत बड़ी, कभी वह मूर्ति बनाते-बनाते खुद उनके हाथों में बंसी पकड़ा देते थे. वह कई बार कोशिश करके भी जैसी चाहते थे, वैसी प्रतिमा नहीं बना पाते थे. तब ब्राह्मण युवक ने कहा कि, यहां तो गणपति का कोई मंदिर भी नहीं, आप एककाम करिए, ध्यान लगाइए और उस ध्यान में गणपति जा की स्मरण कीजिए, फिर वह ध्यान में जैसे नजर आएं वैसी प्रतिमा बना लीजिए.
गणपति भट्ट को ये विचार अच्छा लगा. उन्होंने ध्यान करना शुरू किया. ध्यान में उन्हें अलग-अलग दृष्य नजर आए. कभी देखते की एक बड़ा चेहरा दिख रहा है, जो उन्हें ही देखकर मुस्कुरा रहा है. फिर वह देखते कि गणेश जी ही बांसुरी बजाते नजर आ रहे हैं. कभी उन्हें दिखाई दिया कि दो बड़ी-बड़ी गोल आंखें उन्हें ही देखे जा रही हैं. इसके बाद उन्हें पुरी के श्रीमंदिर में स्थापित भगवान जगन्नाथ नजर आए. अब गणपति भट्ट बहुत परेशान हुए, जो उन्होंने देखा था उसका वर्णन वह कर ही नहीं पा रहे थे, मूर्ति बनाना तो दूर की बात थी.
तब ब्राह्मण युवक ने पूछा कि आप ने श्रीमंदिर में जगन्नाथ जी के दर्शन किए थे? गणपति भट्ट बोले, नहीं… जब मुझे पता चला कि यहां गणेश जी विराजमान ही नहीं हैं तो मैं बाहर से ही लौट आया. तब ब्राह्नण ने कहा, अरे! एक बार देख तो लिए होते, हो सकता है आप के गणेशजी भी वहीं मौजूद हों. चलिए दर्शन करके आते हैं. ब्राह्मण के समझाने पर गणपति भट्ट राजी हो गए और फिर से मंदिर की ओर चले. उस दिन ‘अनासरा विधि’ थी. भगवान को मंदिर से बाहर स्नान प्रांगण में लाया जाता है और फिर स्नान कराया जाता है. ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को जब गर्मी की अधिकता होती है तो उस दिन देव प्रतिमाओं को 108 घड़े के जल से स्नान कराया जाता है. इस स्नान के बाद तीनों देवता बीमार पड़ जाते हैं और फिर वह एकांतवास में चले जाते हैं.
स्नान के ठीक बाद सूती के मलमल कपड़े से उन्हें पोछा जाता है, और उन्हें मलमल के कपड़े में लपेटा जाता है ताकि शरीर से पानी सूख जाए. इस दौरान कपड़ा लपेटते हुए चेहरे पर नाक से होते हुए ऐसे लपेटा जाता है कि जैसे वह हाथी की सूंड हो. यही प्रभु जगन्नाथ का गजानन वेश है. जब गणपति भट्ट श्रीमंदिर पहुंचे तो उन्होंने यही दृश्य देखा और खुशी के मारे चिल्ला पड़े मेरे गणेश जी तो यही हैं. यहां मंदिर में विराजमान हैं. जगन्नाथ प्रभु में उन्हें अपने ईष्ट के दर्शन हो गए. फिर वह जब ब्राह्मण युवक से अपनी खुशी जाहिर करने के लिए मुड़ तो देखा वहां कोई नहीं था, कहते हैं कि अपने सच्चे श्रद्धालु की भक्ति देखकर भगवान जगन्नाथ खुद उनके मन का भ्रम दूर करने आए थे. भगवान जगन्नाथ के गजवेश के दर्शन से आनंद मिलता है और इसके बाद ही वह 15 दिनों तक किसी को दर्शन नहीं देते हैं. वह एकांत वास में चले जाते हैं.
एकांतवास की इस प्रक्रिया को पुरी में ‘अनासरा’ कहते हैं. इन 15 दिनों में देव विग्रहों के दर्शन नहीं होते हैं. 15 दिनों के बाद जब जगन्नाथ जी ठीक होते हैं तब उस दिन ‘नैनासार उत्सव’ मनाया जाता है. इस दिन भगवान का फिर से श्रृंगार किया जाता है, उन्हें नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और इसके बाद वह भ्रमण के लिए तैयार होते हैं. तब फिर श्रीमंदिर के सिंहद्वार पर रथ लाए जाते हैं और फिर दो दिन बाद यहां से रथयात्रा प्रारंभ होती है. ये कुछ ऐसा है कि बीमार होने के कारण जब जगन्नाथ जी कई दिनों तक एकांत में होते हैं तो वह मन बदलने के लिए भाई-बहन के साथ यात्रा पर निकलते हैं.
अनासर की विधि के दौरान जब आषाढ़ की कृष्ण पंचमी तिथि आती है तो इस दिन श्रीमंदिर में अनासर पंचमी मनाई जाती है. अनासर पंचमी के अवसर पर महाप्रभु जगन्नाथ और उनके भाई-बहन भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा को ‘फुलुरी’ तेल उपचार दिया जाता है. इसे फुलुरी तेल सेवा के नाम से जाना जाता है. देव प्रतिमाओं को फुलुरी तेल लगाया जाता है. यह विशेष अनुष्ठान भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहनों को ‘स्नान यात्रा’ के दौरान अत्यधिक स्नान के कारण हुए बुखार से मुक्ति दिलाने के लिए किया जाता है.
फुलुरी तेल विधि के लिए कई सुगंधित फूलों जैसे केतकी, मल्लि, बौला और चंपा, जड़ों, चंदन पाउडर, कपूर, चावल, अनाज और जड़ी-बूटियों के साथ तेल को मिलाकर ‘फुलुरी’ तेल तैयार किया जाता है. फुलुरी तेल बनाने के लिए शुद्ध तिल का तेल, बेना की जड़ें, चमेली, जुई, मल्ली जैसे सुगंधित फूल और चंदन पाउडर उन 24 सामग्रियों में से हैं जिनका उपयोग किया जाता है. हर साल रथ यात्रा के पांचवें दिन ‘हेरा पंचमी’ के अवसर पर तैयारी शुरू होती है और लगभग एक साल तक जमीन के नीचे संग्रहीत होने के बाद मंदिर के अधिकारियों को उपयोग के लिए सौंप दिया जाता है. तीनों देवता रथ यात्रा से एक दिन पहले ‘नव जौबाना दर्शन’ के अवसर पर फुलुरी तेल उपचार के बाद अपनी बीमारी से ठीक हो जाएंगे और फिर रथयात्रा निकलेगी.
यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची श्रद्धा से ईश्वर स्वयं भक्त की परीक्षा लेकर दर्शन देते हैं। जगन्नाथ जी में गणेशजी का रूप देखना भी उसी अखंड सनातन चेतना का प्रतीक है जहाँ हर रूप में ईश्वर ही हैं।