
धन्ना जी बचपन से ही संत-सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में साधुओं के प्रति गहरी श्रद्धा थी।
एक दिन उनके पिताजी ने कहा –
“बेटा, हम गृहस्थ लोग हैं। महीने में एक-दो बार कोई साधु आ जाए, तो सेवा कर दें, यह ठीक है। लेकिन तुम तो रोज़ साधु बुला लाते हो। हमें खेती-बाड़ी करनी चाहिए या साधुओं की सेवा? तुम अभी कमाते भी नहीं हो, तुम्हारा पालन-पोषण हम करते हैं, और ऊपर से इतने साधु! आज के बाद अगर कोई साधु घर लाए तो मैं उसे अंदर नहीं आने दूँगा। अगर सेवा करनी है, तो अपनी कमाई से करना। अभी तुम गेहूँ लेकर खेत में बो आओ।”
धन्ना जी चुपचाप गेहूँ बैलगाड़ी में रखकर खेत की ओर चल दिए। रास्ते में पाँच-छह संत मिले। उन्होंने धन्ना जी को प्रणाम किया और कहा कि वे उनसे मिलने आए हैं।
धन्ना जी ने सोचा — पिताजी ने साधुओं को घर लाने से मना किया है, अगर इन्हें घर ले गया तो नाराज़ होंगे।
इसलिए वे संतों को खेत ले गए, उन्हें पेड़ के नीचे बिठाया और बोले – “आप विश्राम कीजिए, मैं भोजन की व्यवस्था करता हूँ।”
धन्ना जी गेहूँ बेचकर दाल, बाटी और चूरमा का सामान खरीद लाए। संतों के साथ मिलकर भोजन बनाया, भगवान को भोग लगाया और प्रेमपूर्वक उन्हें खिलाया।
भोजन के बाद, गेहूँ की जगह धन्ना जी ने खेत में रेत बो दी ताकि लोग समझें कि उन्होंने बोवाई कर दी है।
कुछ दिन बाद गाँव में चर्चा हुई कि धन्ना जी के खेत में ऐसी सुंदर फसल आई है जैसी किसी ने कभी नहीं देखी — गेहूँ के दाने बिल्कुल समान दूरी पर और सब हरे-भरे!
धन्ना जी को लगा कि लोग मज़ाक कर रहे हैं, लेकिन जब वे खेत पहुँचे, तो चमत्कार देखकर रो पड़े — जहाँ रेत बोई थी, वहाँ सुनहरी गेहूँ की लहलहाती फसल थी।
उन्होंने पिताजी को सब सच बताया। पिताजी भावुक हो गए और बोले – “मेरा सौभाग्य है कि मेरे घर में ऐसा पुत्र जन्मा। आज से तुम जितनी चाहो संत-सेवा करो, मैं भी तुम्हारे साथ रहूँगा।”
उस साल फसल इतनी हुई कि उपज 50 गुना बढ़ गई और भंडार भर गए। गाँव भर में यह बात फैल गई कि यह सब भगवान की कृपा और धन्ना जी की सच्ची भक्ति का परिणाम है।