महाभारत की कहानियों में एक ऐसे चमत्कारी पात्र का जिक्र आता है, जिसने पांडवों के वनवास के सबसे कठिन समय में उनकी भूख की चिंता को मिटा दिया था। यह पात्र “अक्षय पात्र” के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसका अर्थ है- ‘जिसका कभी क्षय न हो’।
जब पांडव द्यूत क्रीड़ा में अपना सब कुछ हारकर 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए वन में गए, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने और साथ रहने वाले ब्राह्मणों और साधु-संतों के लिए भोजन की व्यवस्था करना था। उनकी कुटिया में अक्सर कई अतिथि आ जाते थे, जिनका सत्कार करना उनका धर्म था। इस समस्या से चिंतित होकर द्रौपदी ने युधिष्ठिर से इसका समाधान खोजने का आग्रह किया। तब उनके पुरोहित धौम्य ऋषि ने युधिष्ठिर को सूर्य देव की उपासना करने की सलाह दी। युधिष्ठिर ने कठोर तपस्या कर सूर्य देव को प्रसन्न किया, जिन्होंने वरदान के रूप में उन्हें एक तांबे का पात्र प्रदान किया। सूर्य देव ने कहा कि इस पात्र से चार प्रकार की भोजन सामग्रियां तब तक समाप्त नहीं होंगी, जब तक स्वयं द्रौपदी अंत में भोजन ग्रहण नहीं कर लेतीं। माना जाता है कि युधिष्ठिर को यह अक्षय पात्र अक्षय तृतीया के दिन ही प्राप्त हुआ था। पांडवों को मिले इस दिव्य पात्र की खबर जब दुर्योधन तक पहुंची, तो उसने ईर्ष्यावश एक षड्यंत्र रचा। उसने महर्षि दुर्वासा, जो अपने क्रोध के लिए जाने जाते थे, की खूब सेवा की और उनसे प्रसन्न होकर पांडवों की कुटिया में अपने हजारों शिष्यों के साथ उस समय भोजन के लिए जाने का आग्रह किया, जब द्रौपदी सहित सभी भोजन कर चुके हों। दुर्योधन जानता था कि द्रौपदी के भोजन करने के बाद अक्षय पात्र से अन्न प्रकट नहीं होगा और तब दुर्वासा ऋषि क्रोधित होकर पांडवों को श्राप दे देंगे।
दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ पांडवों की कुटिया पहुंचे और भोजन की इच्छा प्रकट की। उस समय तक द्रौपदी भोजन कर चुकी थीं, जिससे अक्षय पात्र खाली हो चुका था। इस संकट की घड़ी में द्रौपदी ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया। भक्त की पुकार सुनकर श्रीकृष्ण तुरंत वहां प्रकट हुए और द्रौपदी से भोजन मांगा। जब द्रौपदी ने लज्जावश बताया कि पात्र में कुछ भी शेष नहीं है, तो कृष्ण ने पात्र लाने को कहा। उस पात्र में चावल का एक दाना बचा हुआ था, जिसे श्रीकृष्ण ने ग्रहण कर लिया। परब्रह्म के उस एक दाने को ग्रहण करते ही पूरे ब्रह्मांड के जीवों का पेट भर गया, जिसमें नदी में स्नान कर रहे ऋषि दुर्वासा और उनके शिष्य भी शामिल थे। तृप्त होकर वे बिना भोजन किए ही वहां से लौट गए और इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पांडवों को एक बड़े संकट से बचा लिया।
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