
यह कथा सच्ची भक्ति और ईश्वर के अपने वचन के प्रति असीम निष्ठा की है। बहुत समय पहले की बात है, एक ही गांव के दो ब्राह्मण, एक वृद्ध और एक युवा, पुण्य कमाने की इच्छा से वृंदावन की लंबी तीर्थयात्रा पर निकले। उन दिनों यात्रा आज की तरह सुगम नहीं थी। पैदल चलते हुए, धूल भरी सड़कों और घने जंगलों को पार करना पड़ता था।
यात्रा के दौरान, युवा ब्राह्मण ने निःस्वार्थ भाव से वृद्ध की सेवा की। उसने उनके लिए भोजन पकाया, उनके चरण दबाए और हर कठिनाई में उनकी ढाल बनकर खड़ा रहा। उसकी सेवा और भक्ति से वृद्ध ब्राह्मण अभिभूत हो गए। जब वे वृंदावन पहुंचे, तो भगवान कृष्ण के विग्रह के समक्ष खड़े होकर वृद्ध ने कृतज्ञता से कहा, “बेटा, तुमने मेरी इतनी सेवा की है कि मैं तुम्हारा ऋणी हो गया हूं। इस सेवा के बदले, मैं तुम्हें एक वचन देता हूं। मैं अपनी गुणवती पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ करूंगा।”
युवा ब्राह्मण संकोच करते हुए बोला, “यह कैसे संभव है, आप एक प्रतिष्ठित और धनी व्यक्ति हैं और मैं एक निर्धन ब्राह्मण।” लेकिन वृद्ध अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने भगवान को साक्षी मानकर अपना वचन दोहराया।
कुछ समय वृंदावन में बिताने के बाद, दोनों अपने गांव लौट आए। घर पहुंचकर जब वृद्ध ने अपनी पत्नी और पुत्र को अपने वचन के बारे में बताया, तो घर में तूफान आ गया। उनकी पत्नी ने धमकी दी, “यदि आपने मेरी बेटी का विवाह उस गरीब लड़के से किया, तो मैं विष खाकर अपनी जान दे दूंगी!” बेटे ने भी पिता का घोर विरोध किया। परिवार के दबाव में, वृद्ध ब्राह्मण चुप हो गए।
उधर, जब काफी समय बीत गया और कोई समाचार नहीं आया, तो युवा ब्राह्मण चिंतित होकर वृद्ध के घर पहुंचा और उन्हें उनके वचन की याद दिलाई। वृद्ध शर्म से सिर झुकाए मौन खड़े रहे। तभी उनके ज्येष्ठ पुत्र ने उस युवा ब्राह्मण का अपमान करते हुए कहा, “तुम झूठे हो! मेरे पिता को लूटने और उनकी संपत्ति पर नजर रखने के लिए यह कहानी बना रहे हो। निकल जाओ यहाँ से!”
युवा ब्राह्मण ने दुखी होकर कहा, “आपका यह आरोप असत्य है। आपके पिता ने यह वचन वृंदावन में भगवान कृष्ण के सामने दिया था। वे ही इस बात के साक्षी हैं।”
यह सुनकर अहंकारी पुत्र ने उपहास करते हुए कहा, “अच्छा? अगर तुम्हारे भगवान इस बात के गवाह हैं, तो जाओ और उन्हें ही यहां गवाही के लिए ले आओ! यदि भगवान स्वयं आकर यह कह दें कि मेरे पिता ने वचन दिया है, तो मैं अपनी बहन का विवाह तुमसे करवा दूंगा।”
निराश, पर अपनी भक्ति पर अटूट विश्वास के साथ, वह युवक वापस वृंदावन लौटा। उसने भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने रो-रोकर अपनी पूरी व्यथा सुनाई और प्रार्थना की, “हे प्रभु! आपने तो सब कुछ देखा था। अब आप ही मेरी लाज बचाइए। आपको मेरे साथ चलकर गवाही देनी होगी।”
उसकी सच्ची पुकार सुनकर, पत्थर की मूर्ति से एक दिव्य वाणी गूंजी, “भक्त, मैं तो एक मूर्ति हूं, मैं तुम्हारे साथ कैसे चल सकता हूं?”
युवक ने मासूमियत से उत्तर दिया, “प्रभु, जो मूर्ति बोल सकती है, वह चल भी सकती है।”
उसकी अटूट श्रद्धा से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने कहा, “ठीक है, मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। लेकिन मेरी एक शर्त है। तुम आगे-आगे चलोगे और मैं तुम्हारे पीछे। तुम भूलकर भी पीछे मुड़कर नहीं देखोगे। जब तक मेरे पायल (नूपुर) की ध्वनि तुम्हें सुनाई देती रहे, समझना कि मैं तुम्हारे पीछे आ रहा हूं।”
युवक ने शर्त मान ली और दोनों ने यात्रा शुरू कर दी। मीलों तक युवक चलता रहा और उसके कानों में श्रीकृष्ण के नूपुरों की मधुर झंकार पड़ती रही। जब वह अपने गांव की सीमा के पास पहुंचा, तो अचानक उसे पायल की आवाज आनी बंद हो गई। उसके मन में शंका हुई, ‘कहीं भगवान रुक तो नहीं गए?’ वह अपना धैर्य खो बैठा और शर्त तोड़कर पीछे मुड़कर देख लिया।
उसने देखा, भगवान कृष्ण की मनमोहक मूर्ति वहीं खड़ी मुस्कुरा रही थी। शर्त टूट चुकी थी, इसलिए मूर्ति उसी स्थान पर स्थिर हो गई।
युवक दौड़कर गांव में गया और सभी को यह चमत्कार देखने के लिए बुला लाया। लोग यह देखकर स्तब्ध रह गए कि वृंदावन की विशाल मूर्ति चलकर उनके गांव तक कैसे आ गई। तभी, उस मूर्ति ने सबके सामने गवाही दी और वृद्ध ब्राह्मण को उनके वचन का स्मरण कराया।
यह दिव्य चमत्कार देखकर वृद्ध के परिवार का अहंकार चूर-चूर हो गया। उन्होंने क्षमा मांगी और बड़े धूमधाम से अपनी पुत्री का विवाह उस युवा ब्राह्मण से कर दिया। बाद में, उस युवक ने उसी स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया, जहां आज भी लोग “साक्षी गोपाल” यानी गवाही देने वाले गोपाल की पूजा करते हैं।