बहुत समय पहले की बात है, राजा हेम एक प्रतापी और धर्मी राजा थे। उनके राज्य में प्रजा हर तरह से सुखी और संपन्न थी। लंबे समय के इंतजार के बाद राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पूरे राज्य में उत्सव मनाया गया, लेकिन जब ज्योतिषियों ने बालक की कुंडली देखी तो उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। उन्होंने राजा को बताया कि राजकुमार अल्पायु है और विवाह के ठीक चौथे दिन सर्पदंश से उसकी मृत्यु का योग है।
यह सुनकर राजा हेम पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उन्होंने राजकुमार को ऐसी जगह पर बड़ा करने का निर्णय लिया जहाँ किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। राजकुमार को यमुना नदी के किनारे एक सुरक्षित महल में रखा गया और वे वहीं पले-बढ़े।
समय बीतता गया और राजकुमार युवा हो गए। एक दिन जब वे अपने महल के पास घूम रहे थे, तो उनकी दृष्टि एक सुंदर राजकुमारी पर पड़ी। दोनों एक-दूसरे को देखते ही मोहित हो गए और उन्होंने गंधर्व विवाह कर लिया। राजा हेम को जब यह समाचार मिला तो वे चिंतित हो उठे, क्योंकि विवाह के चौथे दिन की भविष्यवाणी उनके मन में अभी भी ताज़ा थी।
राजकुमार की नवविवाहिता पत्नी एक बहुत ही पतिव्रता और बुद्धिमान स्त्री थी। जब उसे अपने पति की अल्पायु के बारे में पता चला, तो उसने ठान लिया कि वह यमराज को अपने पति के प्राण हरने नहीं देगी।
विवाह का चौथा दिन आया। उस दिन उसने पूरे महल को दीपकों से जगमग कर दिया। कोई भी कोना ऐसा नहीं था जहाँ दीपक की रोशनी न पहुँच रही हो। उसने अपने सारे सोने-चांदी के आभूषणों को इकट्ठा किया और महल के मुख्य द्वार पर उनका एक विशाल ढेर लगा दिया। उसने अपने पति को जगाए रखने के लिए पूरी रात उन्हें कहानियां सुनाईं और गीत गाए।
जब मृत्यु के देवता यमराज सर्प का रूप धारण कर राजकुमार के प्राण लेने के लिए महल पहुँचे, तो दीपकों की तेज रोशनी और सोने-चांदी के आभूषणों की चकाचौंध से उनकी आँखें चौंधिया गईं। वे चकाचौंध के कारण महल के अंदर प्रवेश ही नहीं कर सके। यमराज पूरी रात उसी आभूषणों के ढेर पर बैठे रहे और सुबह होने पर उन्हें खाली हाथ ही यमलोक लौटना पड़ा।
इस प्रकार, एक पतिव्रता नारी की चतुराई और प्रेम ने यमराज को भी विवश कर दिया और राजकुमार के प्राण बच गए। तभी से यह मान्यता है कि धनतेरस के दिन घर के बाहर दक्षिण दिशा की ओर यमराज के नाम का एक दीपक जलाने से परिवार के सदस्यों की अकाल मृत्यु से रक्षा होती है। यह दीपक “यमदीप” कहलाता है और यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची निष्ठा और प्रेम से मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है।
बहुत समय पहले की बात है, राजा हेम एक प्रतापी और धर्मी राजा थे। उनके राज्य में प्रजा हर तरह से सुखी और संपन्न थी। लंबे समय के इंतजार के बाद राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पूरे राज्य में उत्सव मनाया गया, लेकिन जब ज्योतिषियों ने बालक की कुंडली देखी तो उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। उन्होंने राजा को बताया कि राजकुमार अल्पायु है और विवाह के ठीक चौथे दिन सर्पदंश से उसकी मृत्यु का योग है।
यह सुनकर राजा हेम पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उन्होंने राजकुमार को ऐसी जगह पर बड़ा करने का निर्णय लिया जहाँ किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। राजकुमार को यमुना नदी के किनारे एक सुरक्षित महल में रखा गया और वे वहीं पले-बढ़े।
समय बीतता गया और राजकुमार युवा हो गए। एक दिन जब वे अपने महल के पास घूम रहे थे, तो उनकी दृष्टि एक सुंदर राजकुमारी पर पड़ी। दोनों एक-दूसरे को देखते ही मोहित हो गए और उन्होंने गंधर्व विवाह कर लिया। राजा हेम को जब यह समाचार मिला तो वे चिंतित हो उठे, क्योंकि विवाह के चौथे दिन की भविष्यवाणी उनके मन में अभी भी ताज़ा थी।
राजकुमार की नवविवाहिता पत्नी एक बहुत ही पतिव्रता और बुद्धिमान स्त्री थी। जब उसे अपने पति की अल्पायु के बारे में पता चला, तो उसने ठान लिया कि वह यमराज को अपने पति के प्राण हरने नहीं देगी।
विवाह का चौथा दिन आया। उस दिन उसने पूरे महल को दीपकों से जगमग कर दिया। कोई भी कोना ऐसा नहीं था जहाँ दीपक की रोशनी न पहुँच रही हो। उसने अपने सारे सोने-चांदी के आभूषणों को इकट्ठा किया और महल के मुख्य द्वार पर उनका एक विशाल ढेर लगा दिया। उसने अपने पति को जगाए रखने के लिए पूरी रात उन्हें कहानियां सुनाईं और गीत गाए।
जब मृत्यु के देवता यमराज सर्प का रूप धारण कर राजकुमार के प्राण लेने के लिए महल पहुँचे, तो दीपकों की तेज रोशनी और सोने-चांदी के आभूषणों की चकाचौंध से उनकी आँखें चौंधिया गईं। वे चकाचौंध के कारण महल के अंदर प्रवेश ही नहीं कर सके। यमराज पूरी रात उसी आभूषणों के ढेर पर बैठे रहे और सुबह होने पर उन्हें खाली हाथ ही यमलोक लौटना पड़ा।
इस प्रकार, एक पतिव्रता नारी की चतुराई और प्रेम ने यमराज को भी विवश कर दिया और राजकुमार के प्राण बच गए। तभी से यह मान्यता है कि धनतेरस के दिन घर के बाहर दक्षिण दिशा की ओर यमराज के नाम का एक दीपक जलाने से परिवार के सदस्यों की अकाल मृत्यु से रक्षा होती है। यह दीपक “यमदीप” कहलाता है और यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची निष्ठा और प्रेम से मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है।
कहा जाता है कि तभी से धनतेरस की शाम को घर के बाहर दक्षिण दिशा की ओर यमराज के नाम का एक दीपक जलाने की परंपरा शुरू हुई। यह “यमदीप” कहलाता है और इसे अकाल मृत्यु से बचने और परिवार की सलामती के लिए जलाया जाता है। यह कथा हमें याद दिलाती है कि प्रेम और सजगता से बड़ी से बड़ी विपत्ति को भी टाला जा सकता है।
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