
क्या आपने कभी सोचा है कि तिरुपति बालाजी मंदिर में इतनी भारी मात्रा में चढ़ावा क्यों चढ़ाया जाता है? क्यों वहाँ भक्त सोना, पैसा और बहुमूल्य वस्तुएँ दान करते हैं? इसके पीछे एक दिव्य पौराणिक कथा है — भगवान वेंकटेश्वर और कुबेर के कर्ज की कहानी।
कहानी की शुरुआत होती है जब महर्षि भृगु यह जानने के लिए निकले कि त्रिदेवों में सबसे सहनशील कौन हैं। जब वे वैकुंठ पहुँचे, तब भगवान विष्णु योगनिद्रा में लीन थे। भृगु ऋषि ने उन्हें जगाने के लिए उनके वक्षस्थल पर पाँव मार दिया। परन्तु भगवान विष्णु ने क्रोधित होने के बजाय प्रेमपूर्वक उनके चरण पकड़ लिए और पूछा, “हे ऋषिवर! क्या आपके कोमल चरणों को चोट तो नहीं लगी?” यह देखकर ऋषि भावविभोर हो गए, लेकिन इस घटना से देवी लक्ष्मी बहुत आहत हुईं क्योंकि विष्णु ने ऋषि के इस अपमानजनक व्यवहार को भी सहन कर लिया। क्रोधित होकर देवी लक्ष्मी वैकुंठ छोड़कर पृथ्वी पर चली गईं।
भगवान विष्णु, लक्ष्मी के वियोग से व्यथित होकर, पृथ्वी पर श्रीनिवास के रूप में वेंकटाचल पर्वत पर निवास करने लगे। उधर, देवी लक्ष्मी ने पृथ्वी पर राजा अकासा की कन्या पद्मावती के रूप में जन्म लिया। एक दिन श्रीनिवास की पद्मावती से भेंट हुई और दोनों एक-दूसरे को देखकर मोहित हो गए। उन्होंने विवाह का निर्णय लिया। लेकिन पद्मावती के पिता ने पूछा कि एक साधारण वनवासी विवाह के लिए आवश्यक धन और वैभव कैसे जुटा पाएगा?
भगवान श्रीनिवास ने धन जुटाने के लिए कुबेर देवता से संपर्क किया। उन्होंने एक करोड़ चौदह लाख स्वर्ण मुद्राएँ कर्ज के रूप में मांगी। कुबेर ने यह कर्ज भगवान ब्रह्मा और शिव को साक्षी मानकर एक शर्त पर दिया — कि यह कर्ज कलियुग के अंत तक ब्याज सहित चुकाया जाएगा और जब तक कर्ज चुकता नहीं होता, भगवान विष्णु वैकुंठ वापस नहीं लौटेंगे। भगवान ने यह शर्त स्वीकार कर ली और पद्मावती से विवाह किया।
ऐसा माना जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर आज भी तिरुपति में विराजमान हैं और अपने भक्तों द्वारा चढ़ाए गए दान के माध्यम से वह कर्ज चुकाते जा रहे हैं। यही कारण है कि तिरुपति बालाजी मंदिर में भक्त करोड़ों का दान करते हैं — क्योंकि यह विश्वास है कि जो भक्त भगवान को कर्ज चुकाने में मदद करता है, भगवान उसकी कई गुना सहायता करते हैं। यह कहानी सिर्फ एक वित्तीय लेन-देन की नहीं, बल्कि ईश्वर के त्याग, प्रेम और भक्तों पर भरोसे की गहरी प्रतीकात्मक गाथा है।