
पुरी नगरी में श्रिया नामक एक निर्धन, निम्न जाति की महिला रहती थी। देवी लक्ष्मी की उपासिका और जगन्नाथजी के भरोसे ही उसका जीवन चलता था।
एक दिन उसकी हृदय से प्रबल इच्छा हुई कि वह अष्टलक्ष्मी व्रत करे। लेकिन उसे उसकी विधि नहीं आती थी। हर मंदिर, हर पुजारी से उसने आग्रह किया, लेकिन केवल तिरस्कार ही मिला।
भूख और थकान से व्याकुल श्रिया एक दिन मार्ग में ही गिर पड़ी। उसके सिर से खून बहने लगा… और उसी क्षण, श्रीजगन्नाथजी की प्रतिमा से भी रक्त बहने लगा। पूरी नगरी में हड़कंप मच गया। राजा चौंक उठा — यह कोई सामान्य घटना नहीं थी। समझते देर न लगी कि कहीं कोई बड़ा अधर्म हुआ है। राजा ने सिंहासन त्याग दिया और सच्चाई की खोज में निकल पड़ा।
उधर, नारद मुनि संत के वेश में श्रिया के घर पहुंचे। उन्होंने समझाया कि भक्ति में विधि नहीं, भावना ही सर्वोपरि है।
श्रिया ने उनके निर्देशों का पालन किया। उसने पूरे मन से व्रत किया। तभी एक घूंघट वाली महिला उसके घर आई और एक पोटली भेंट की। प्रसाद खाते ही महिला के चेहरे से घूंघट हटा — वह स्वयं देवी लक्ष्मी थीं! पोटली में रत्न, हीरे, स्वर्ण… श्रिया की आँखों से आंसू बह निकले,
लेकिन कथा यहीं समाप्त नहीं होती…
देवी लक्ष्मी जब श्रीमंदिर लौटीं, तो बलभद्र क्रोधित हो उठे। उन्होंने लक्ष्मीजी पर निम्न जाति के घर जाकर मंदिर की मर्यादा भंग करने का आरोप लगाया और उन्हें रत्न भंडार की चाबी छीनकर मंदिर से निष्कासित कर दिया।
लक्ष्मी क्रोधित हो गईं और जाते-जाते श्राप दिया,
“जब तक तुम लोग किसी नीच जाति के हाथों से अन्न नहीं ग्रहण करोगे, तुम्हारा भरण-पोषण नहीं होगा।”
श्रीहीन श्रीमंदिर, अब उजाड़ होने लगा। रत्न भंडार सूना हो गया, कपड़े फटने लगे, अनाज सड़ने लगा, दीमकें दरवाजों में समा गईं। भगवान जगन्नाथ और बलभद्र को भोजन तक नहीं मिल पाया। जब-जब वे भिक्षा मांगते, कोई चूल्हा नहीं जलता, भोजन जल जाता, या द्वार ही बंद रहता।
बारह वर्ष तक वे भूखे-प्यासे भटकते रहे। अंततः वे एक तट पर पहुँचे जहाँ वेद-मंत्रों की गूंज सुनाई दी। वहां की सेविका ने बताया कि उनकी स्वामिनी की तपस्या पूर्ण होने वाली है और वह एक भंडारा रखेंगी।
बलभद्र ने पूछा – “क्या हमारी भिक्षा मिलेगी?”
सेविका बोली – “हमारी स्वामिनी नीच कुल की हैं। क्या आप खाएंगे?”
बलभद्र ने मना कर दिया और कहा – “अपनी मालकिन से कह दो कि हमें सामग्री मंगवा दें हम खुद बना लेंगे” लेकिन चूल्हा नहीं जला । अंत में बोले –
“भोजन में क्या ऊँच-नीच? भूख से बड़ा कोई धर्म नहीं होता।”
वे लक्ष्मी के पास गए, जिन्होंने उन्हें भोजन कराया। जगन्नाथ और बलभद्र ने पहचाना, यह देवी लक्ष्मी ही हैं! उन्होंने क्षमा मांगी और उन्हें सम्मानपूर्वक श्रीमंदिर वापस लाए।