
एक सुनसान राह पर, कमर पर अपनी झोली लटकाए गोस्वामी तुलसीदास जी मंद-मंद गति से चले आ रहे थे। उनके चेहरे पर एक सहज शांति और होठों पर राम नाम का अदृश्य जाप था। तभी, सामने से कुछ कठोर और भयावह चेहरे उनकी ओर बढ़ते दिखाई दिए। वे उस इलाके के कुख्यात चोर थे, जिनकी आहट से ही लोग कांप उठते थे।
उनमें से एक ने कर्कश स्वर में पूछा, “कौन हो तुम? और इस समय यहाँ क्या कर रहे हो?”
तुलसीदास जी रुके । उन्होंने शांत भाव से उत्तर दिया, “भाई, जो तुम हो, वही मैं भी हूँ।”
उनके इस रहस्यमयी उत्तर से चोर चकित हो गए। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा और मान लिया कि यह कोई नया चोर है जो उनके इलाके में आया है। सरदार बोला, “लगता है इस धंधे में नए हो। खैर, आज की रात हमारे साथ चलो, काम सीख जाओगे।”
तुलसीदास जी ने केवल सिर हिलाया और चुपचाप उनके पीछे हो लिए, जैसे यह भी प्रभु की ही कोई लीला हो।
कुछ दूर जाकर, एक आलीशान हवेली के पास वे रुके। चोरों ने दीवार में सेंध लगाई और अंदर जाने की तैयारी करने लगे। उनके सरदार ने तुलसीदास से कहा, “तुम बाहर रहकर पहरा दो। यदि कोई आता-जाता दिखे, तो हमें तुरंत आगाह कर देना। माल में तुम्हारा भी हिस्सा होगा।”
जैसे ही चोर हवेली के अंदर घुसे, तुलसीदास जी ने अपनी झोली से शंख निकाला। उन्होंने गहरी सांस भरी और पूरी शक्ति से शंखनाद कर दिया। शंख की मंगल ध्वनि ने रात के सन्नाटे को चीर दिया और दूर-दूर तक गूँज गई।
आवाज़ सुनकर चोर घबराकर बाहर भागे और क्रोधित होकर तुलसीदास को एक कोने में खींच लिया। एक चोर ने फुसफुसाते हुए पूछा “मूर्ख! यह क्या किया? तुमने शंख क्यों बजाया? क्या हमें पकड़वाना चाहते हो?”।
तुलसीदास ने अत्यंत भोलेपन से उत्तर दिया, “आपने ही तो कहा था कि यदि कोई देखे तो सूचित कर देना। जब मैंने चारों ओर देखा, तो मुझे हर कण में मेरे प्रभु श्री राम दिखाई दिए। मैंने सोचा कि वे तुम्हें चोरी करते हुए देख रहे हैं और कहीं तुम्हें कोई दंड न मिल जाए। बस, आप लोगों को उन्हीं से बचाने के लिए मैंने शंख बजाकर सचेत कर दिया।”
सरदार ने अविश्वास से पूछा “राम? कहाँ हैं राम?”।
तुलसीदास जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “प्रभु कहाँ नहीं हैं? वे तो सर्वव्यापी हैं, हर जीव में, हर कण में उनका वास है। वे तो मेरे भीतर भी हैं और तुम्हारे भीतर भी। मैं उन्हें सर्वत्र देख रहा हूँ, तुम्हें कैसे बताऊँ?”
तुलसीदास के मुख से निकले इन शब्दों में ऐसी दिव्यता और सच्चाई थी कि चोरों के कठोर हृदय पिघल गए। उन्हें लगा जैसे किसी ने उनके भीतर का अंधकार मिटा दिया हो। वे समझ गए कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि कोई महात्मा है। ग्लानि और श्रद्धा के भाव से उनकी आँखें भर आईं और वे सभी एक साथ तुलसीदास जी के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने उसी क्षण चोरी का मार्ग त्यागकर भक्ति और सदाचार का जीवन अपनाने का संकल्प लिया।