
एक बार श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की भव्य तैयारियाँ की जा रही थीं। महल सजा हुआ था, नृत्य, संगीत और उल्लास का वातावरण चारों ओर फैला था। द्वारका के लोग बड़ी श्रद्धा और उत्साह से इस पर्व में भाग लेने आए थे। लेकिन आश्चर्य की बात थी कि स्वयं श्रीकृष्ण इस उत्सव में सम्मिलित नहीं हुए। वे अपने कक्ष में मौन और शांत बैठे थे।
रुक्मिणी जी उनके पास आईं और स्नेह से पूछने लगीं, “नाथ, आज तो आपका जन्मदिवस है। हम सब आपका उत्सव मना रहे हैं, और आप इतने उदास क्यों हैं? क्या बात है?”
श्रीकृष्ण ने मंद मुस्कान के साथ उत्तर दिया, “मुझे तीव्र सिरदर्द हो रहा है।”
रुक्मिणी चिंतित हो उठीं। तुरंत वैद्य बुलवाए गए। कई औषधियाँ दी गईं, मंत्र-जाप किए गए, लेकिन श्रीकृष्ण बोले, “इनसे कोई लाभ नहीं होगा।”
अब बात फैल गई। सत्यभामा, नारद और अन्य लोग भी चिंतित होकर वहाँ पहुँचे। सबने पूछा, “भगवान, हमें बताइए हम क्या करें जिससे आप ठीक हो जाएँ?”
कृष्ण ने शांत स्वर में कहा, “यदि कोई मुझे सच्चा, निस्वार्थ प्रेम करता है, तो वह अपने चरणों की धूल मेरे मस्तक पर रख दे। वही मेरी औषधि बनेगी।”
यह सुनते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया।
सत्यभामा पीछे हट गईं, “मैं आपसे प्रेम करती हूँ प्रभु, पर अपने चरणों की धूल आपके सिर पर? यह तो आपके अपमान जैसा होगा।”
रुक्मिणी की आँखों में आँसू भर आए, “मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ? यह तो अधर्म होगा।”
नारद भी चौंक उठे, “आप तो स्वयं भगवान हैं। कोई आपकी वंदना करता है, और मैं अपने पापी चरणों की धूल आपके सिर पर रख दूँ? मैं तो सीधे नरक चला जाऊँगा।”
हर कोई प्रेम करता था, पर कोई भी इतना निस्वार्थ नहीं था कि अपने अभिमान और भय से ऊपर उठ पाए।
तभी यह समाचार वृंदावन पहुँचा। गोपियाँ यह सुनकर अधीर हो उठीं। राधा जी ने बिना कुछ पूछे, अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे ज़मीन पर बिछा दिया। सभी गोपियाँ प्रेमपूर्वक उस पर नाचने लगीं, उनके चरणों की धूल उस पल्लू में समा गई।
राधा ने वह धूल भरा पल्लू नारद को दिया और कहा, “जाइए, यह हमारे प्रेम की औषधि है, प्रभु के मस्तक पर बाँध दीजिए।”
नारद चकित रह गए। वे वह पल्लू श्रीकृष्ण के पास लाए और जैसे ही उसे उनके सिर पर बाँधा, कृष्ण का सिरदर्द क्षणभर में ही समाप्त हो गया।
श्रीकृष्ण मुस्कराए, और बोले, “यही है वह प्रेम, जो मुझे चाहिए — निस्वार्थ, निश्छल, अहंकाररहित।”
इस घटना से कृष्ण ने संसार को यह सिखाया कि प्रेम दिखावे, डर या अहंकार से नहीं चलता — सच्चा प्रेम त्याग माँगता है, समर्पण माँगता है।