जब हम भारत के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों की बात करते हैं, तो अक्सर मुगलों का नाम सबसे पहले आता है। दिल्ली के तख्त पर बैठकर उन्होंने लगभग पूरे भारत पर अपनी धाक जमाई। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में एक ऐसा साम्राज्य भी था, एक ऐसी शक्ति थी, जिसने न सिर्फ मुगलों को चुनौती दी, बल्कि उन्हें एक, दो या पाँच बार नहीं, बल्कि पूरे 17 बार हराया!
नमस्कार दोस्तों! आज हम आपको भारत के उस गौरवशाली कोने में ले चलेंगे, जिसकी कहानियाँ इतिहास की किताबों में कहीं खो गई हैं। ये कहानी है पूर्वोत्तर भारत के वीर अहोम योद्धाओं की, जिन्होंने लगभग 600 सालों तक अपनी ज़मीन पर किसी बाहरी ताकत को पैर नहीं जमाने दिया। यह कहानी है अहोम साम्राज्य की। इस शानदार कहानी की शुरुआत होती है 13वीं सदी में। साल 1228 में, बर्मा (आज के म्यांमार) की शान पहाड़ियों से निकलकर एक राजकुमार, चाओ लुंग सुकाफा, अपने योद्धाओं के साथ ब्रह्मपुत्र की घाटी में पहुँचे। उन्होंने यहाँ के स्थानीय कबीलों को एकजुट किया और एक शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रखी, जो इतिहास में “अहोम साम्राज्य” के नाम से जाना गया। अहोम सिर्फ विजेता नहीं थे, बल्कि वे कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने एक अनूठी प्रशासनिक व्यवस्था बनाई जिसे ‘पाइक सिस्टम’ कहा जाता था। इस सिस्टम के तहत राज्य के हर पुरुष को देश की सेवा करना अनिवार्य था, या तो सैनिक के रूप में या फिर किसी और काम में। यही एकता और अनुशासन उनकी सबसे बड़ी ताकत बनी। 17वीं सदी आते-आते, मुग़ल साम्राज्य अपने शिखर पर था।
शाहजहाँ से लेकर औरंगज़ेब तक, उनकी नज़र असम की दौलत और सामरिक स्थिति पर थी। उन्होंने कई बार अहोम साम्राज्य पर हमला करने की कोशिश की, लेकिन हर बार उन्हें ब्रह्मपुत्र के इन शेरों से मुँह की खानी पड़ी। अहोम योद्धा अपनी ज़मीन को, अपनी नदियों को, और अपने जंगलों को बहुत अच्छी तरह से जानते थे। वे मुगलों पर छिपकर हमला करने की ‘गोरिल्ला युद्धनीति’ का इस्तेमाल करते थे, जिससे विशाल मुगल सेना भी घबरा जाती थी। अब हम आते हैं उस सबसे बड़ी और निर्णायक लड़ाई पर जो इस दुश्मनी का प्रतीक बन गई – “सरायघाट की लड़ाई”।
साल 1671। मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने अपने सबसे काबिल सेनापतियों में से एक, राजा राम सिंह को एक विशाल सेना के साथ असम पर कब्ज़ा करने के लिए भेजा। मुगलों के पास तोपें थीं, घुड़सवार थे, और एक बहुत बड़ी सेना थी। उनका सामना करने के लिए अहोम सेना की कमान संभाल रहे थे एक ऐसे योद्धा, जिनका नाम आज हर भारतीय को गर्व से लेना चाहिए – वीर लाचित बोरफुकन! लाचित जानते थे कि मैदानी लड़ाई में मुगलों को हराना नामुमकिन है। इसलिए उन्होंने लड़ाई को ब्रह्मपुत्र नदी पर लड़ने की योजना बनाई। उन्होंने गुवाहाटी के पास सरायघाट में नदी के रास्ते को इतना संकरा बना दिया कि मुगल अपनी बड़ी नावों और तोपों का सही इस्तेमाल ही न कर सकें। लड़ाई अपने अंतिम चरण में थी। एक समय ऐसा आया जब अहोम सैनिक हार मानने लगे। खुद लाचित बोरफुकन उस समय बहुत बीमार थे। लेकिन जब उन्होंने अपने सैनिकों का मनोबल टूटते देखा, तो वो अपनी बीमारी की परवाह किए बिना एक नाव पर सवार हो गए और चिल्लाकर बोले: “अगर तुम भागना चाहते हो, तो भाग जाओ! लेकिन बादशाह को जाकर बताना कि उनका सेनापति लाचित अपनी मातृभूमि के लिए लड़ते हुए शहीद हो गया!” अपने सेनापति का यह साहस देखकर अहोम सैनिकों में बिजली सी दौड़ गई। वे दोगुनी ताकत से मुगलों पर टूट पड़े और ब्रह्मपुत्र नदी में एक ऐसी नौसैनिक लड़ाई लड़ी, जिसने मुगलों की कमर तोड़ दी। विशाल मुगल सेना को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। यह वीर लाचित बोरफुकन और अहोमों की सबसे बड़ी जीत थी। सरायघाट सिर्फ एक लड़ाई नहीं थी, यह एक साम्राज्य के आत्मसम्मान की जीत थी।
इसके बाद भी मुगलों ने कई कोशिशें कीं, लेकिन अहोम साम्राज्य लगभग 600 सालों तक, यानी 1826 तक, आज़ाद रहा।
उन्होंने बार-बार यह साबित किया कि संख्या नहीं, बल्कि साहस, रणनीति और अपनी धरती के लिए प्यार ही असली ताकत है। तो आखिर ये महान कहानी इतिहास के पन्नों में गुम क्यों हो गई? क्यों हमारे हीरो सिर्फ दिल्ली के सुल्तान हैं? लाचित बोरफुकन जैसे वीरों की कहानियाँ हमें यह याद दिलाती हैं कि भारत का इतिहास बहुत विशाल और विविध है, जिसके हर कोने में वीरता की एक नई गाथा छिपी है।
आपको वीर लाचित बोरफुकन और अहोम साम्राज्य की यह कहानी कैसी लगी? क्या आप ऐसे और भी गुमनाम नायकों के बारे में जानना चाहते हैं? हमें नीचे कमेंट्स में ज़रूर बताएँ। इस वीडियो को इतना शेयर करें कि हर भारतीय को अपने इस गौरवशाली इतिहास के बारे में पता चले।
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