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बद्रीनाथ मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथाएं

बद्रीनाथ मंदिर: उत्तराखंड के केदारखंड (गढ़वाल) में भगवान विष्णु के पांच मंदिरों को पंच बद्री कहा जाता है: बद्रीनाथ धाम, आदि बद्री, भविष्य बद्री, वृद्ध बद्री, योग-ध्यान बद्री. इन मंदिरों में अलग-अलग रूपों में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. स्थानीय लोगों के मुताबिक, इन पांच मंदिरों में दर्शन के बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है. 

1. बद्रीनाथ मंदिर

उत्तराखण्ड के चमोली जिले में नर तथा नारायण पर्वतों के मध्य बद्रीनाथ धाम, पंच बद्री (Panch Badri) में मुख्य, पुराणों में सर्वश्रेष्ठ एंव चारो धामों में से एक प्रसिद्ध और पौराणिक धाम है। यहाँ भगवान् विष्णु साक्षात् निवास करते हैं इसीलिए बद्रीनाथ को दूसरा वैकुण्ठ भी कहा जाता है। बद्रीनाथ में भगवान बद्रीविशाल का भव्य मंदिर है तथा मंदिर के बाएं भाग में अलकनंदा है। अलकनन्दा में ही नारदकुण्ड तथा इससे ऊपर तप्तकुण्ड है। तप्तकुण्ड में स्नान करने के पश्चात श्रद्धालु भगवान बद्रीनाथ के दर्शन करने जाते हैं। बद्रीनाथ मंदिर समुद्रतल से लगभग 3140 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। बद्रीनाथ मंदिर की मुख्य मूर्ति, ‘शालिग्राम’ शिला द्वारा निर्मित है।

बद्रीनाथ मंदिर में विष्णु भगवान, नर नारायण आदि देवताओं की मूर्तियाँ हैं। मंदिर परिक्रमा में शंकराचार्य, लक्ष्मी जी का मंदिर तथा देवी – देवताओं की मूर्तियाँ हैं और तप्तकुण्ड के पास छोटा शिवालय भी है। बद्रीनाथ तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। बद्रीनाथ मंदिर के नीचे अलकनन्दा में गर्म जलधारा ‘तप्तकुण्ड’ है। कहा जाता है कि भगवान बदरीविशाल की मूल मूर्ति को बौद्धों ने नारदकुण्ड (तप्त कुण्ड के नीचे) फेंक दिया था। 8 वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य ने मूर्ति को नारदकुण्ड से निकालकर मन्दिर में पुनः स्थापित किया था।

बद्रीनाथ स्थित भगवान विष्णु की पूजा पारम्परिक रूप से केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों द्वारा की जाती है। बद्रीनाथ की पूजा रावल के अतिरिक्त कोई और नहीं कर सकता है। रावल दक्षिणी देश का अथवा चोली या मुकाणी जाति का होता है। रावल को विवाह करने का अधिकार नहीं है। उन्हें वेद का ज्ञाता होना चाहिए।

बद्रीनाथ धाम में कभी भी शंख नहीं बजाया जाता इसके पीछे धार्मिक मान्यता है कि जब माता लक्ष्मी बद्रीनाथ धाम में तुलसी रूप में ध्यान कर रही थीं. उसी समय भगवान विष्णु ने शंखचूर्ण नाम के राक्षस का वध किया था. तो भगवान् विष्णु माता लक्ष्मी का ध्यान भंग नहीं करना चाहते थे इसीलिए उन्हें शंखनाद नहीं किया था उसी समय से यहाँ पर कभी भी शंख नहीं बजाया जाता है

आइए अब जानते हैं बद्रीनाथ मंदिर की प्रचलित कथाओं के बारे में।

बद्रीनाथ मंदिर पहली कथा

एक बार की बात है । जब देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु से नाराज होकर वैकुण्ठ छोड़कर चली जाती है और भगवान विष्णु ने भी इस बात से आहत होकर नर और नारायण के नाम के दो पर्वतों के बीच तपस्या करना चले जाते हैं । और कई वर्षो पश्चात् माता लक्ष्मी को अपनी भूल का आभास होता है और भगवान विष्णु को खोजती हुई नर नारायण पर्वत पर जा पहुंचती है और देखती है कि भगवान विष्णु तपस्या में लीन हैं और उन पर भारी हिमप्रपात के करण वह ढक गए हैं।

उनकी इस दशा को देखकर देवी लक्ष्मी ने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े होकर बद्री (बेर) के पेड़ का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु अपनी तपस्या से जगते हैं तो देखते हैं कि देवी लक्ष्मी ने पेड़ का रूप ले रखा है और हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है, इसीलिए मुझे बद्री के नाथ यानि बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।

बद्रीनाथ मंदिर दूसरी कथा-शिव भूमि हो गई श्री हरि की भूमि

बद्रीनाथ को लेकर पौराणिक कथाओं में एक कथा यह भी प्रचलित है, कि बदरीनाथ धाम में शिवजी सपरिवार निवास करते थे। परंतु एक बार जब भगवान विष्णु तपस्या के लिए कोई स्थान ढ़ूढ रहे थे तो अचानक उन्हें यह स्थान दिखा और उन्हें यह स्थान बेहद पसंद आ गया। श्री हरि यह जानते थे की यह जगह उनके आराध्य भगवान शिव का निवास स्थान है। इसलिए उन्होंने एक युक्ति निकाली । नीलकण्ठ पर्वत के समीप श्री हरि विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया और जोर-जोर से रोने लगे । उनका रोना देख माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठाऔर वो उस बच्चे के पास दौड़ी चली गयी ।

शिव ने श्री हरी विष्णु को पहचान लिया था और माता पारवती से कहा की इस बच्चे को यही छोड़ दो यह कोई मायावी प्रतीत होता है । शिव जी के लाख मना करने के बाद भी पारवती उस नन्हे बालक  को अपने साथ घर ले आती हैं और उसे खिला-पिलाकर खूब लाड करके सुला देती हैं और शिव जी के साथ बाहर भ्रमड़ पर चली जाती है । इतने में भगवान् विष्णु जागते हैं  और अंदर से दरवाजा बंद कर लेते है ।

जब शिव पारवती वापस अपने घर आते है तो देखते है की दरवाजा तो अंदर से बंद है । काफी प्रयास के बाद भी जब दरवाजा अंदर से नहीं खुलता है तो निराश होकर वो  वहा से केदारनाथ को चले जाते है और इस तरह श्री हरी विष्णु वहाँ बद्रीनाथ के रूप में बस जाते हैं।

बद्रीनाथ मंदिर तीसरी कथा

विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा के मानस पुत्र धर्म और प्रजापति दक्ष की पुत्री अहिंसा के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे आदि बद्री, वृद्ध बद्री, योगध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का स्रोत मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया।

बद्रीविशाल को ही आज बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है। भागवत पुराण के अनुसार बद्रिकाश्रम में भगवान विष्णु सभी जीवित इकाइयों के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं। जिन्हें आज के समय में  नर और नारायण पर्वत के नाम से जाना जाता है जो की बद्रीनाथ मंदिर के दोनों ओर स्तिथ हैं ।

2. आदिबद्री 

उत्तराखंड के चमोली में कर्णप्रयाग से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर यह तीर्थ स्थित है। समुद्रतल से 920 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस पवित्र तीर्थ आदिबद्री का स्थानीय नाम ‘नौठा’ है। आदिबद्री के प्रमुख देवता विष्णु जी की 1 मीटर ऊँची श्यामवर्ण शिला से निर्मित है।

3. वृद्ध बद्री

बद्रीनाथ मार्ग पर जोशीमठ से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर वृद्ध बद्री का मन्दिर है। यह  समुद्रतल से लगभग 1380 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर भगवान् विष्णु ने नारद मुनि की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें  वृद्ध रूप में दर्शन दिए थे। इसीलिए इसका नाम वृद्ध बद्री पड़ा ।

4. योगध्यान बद्री

मोली जनपद में जोशीमठ से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर पाण्डुकेश्वर की पुरानी बस्ती में योगध्यान बद्री का मंदिर है और सामने ऊँचे शिखर पर पाण्डव शिला है। कहते हैं, यहीं पर पाण्डवों का जन्म हुआ। राजा पाण्डु ने अपने को शाप मुक्त करने के लिए यहीं तपस्या की थी। इसलिए इस स्थान का नाम ‘पाण्डुकेश्वर’ पड़ा। यहीं पर भगवान बद्रीनारायण अपनी योग – साधना में लीन हैं।

5. भविष्य बद्री

जोशीमठ से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर भविष्य बद्री मंदिर स्तिथ है। यहाँ विष्णु भगवान के अवतार नृसिंह भगवान् की शालिग्राम शिला की पूजा की जाती है। जिनकी बायीं भुजा पतली है और समय के साथ यह और भी पतली होती जा रही है। जिस दिन इनकी कलाई मूर्ति से अलग हो जाएगी उस दिन नर-नारायण पर्वत एक हो जाएंगे। तब बद्रीनाथ जी की यात्रा अगम्य हो जाएगी और तब बद्रीनाथ जी की पूजा भविष्य बद्री में होने लगेगी। पुराणों में इसका उल्लेख है।

बद्रीनाथ धाम के आसपास दर्शनीय स्थल

कुण्ड

तप्तकुण्ड, नारदकुण्ड, सत्यपथकुण्ड, त्रिकोणकुण्ड और मानुषीकुण्ड। पाँचवा मानुषीकुण्ड ठण्डे जल का स्रोत है। बाकि 4 गर्म जल का स्रोत हैं ।

धाराएँ

कूर्म धारा, प्रह्लाद धारा, इन्दु धारा, उर्वशी धारा, तथा भृगु धारा,वसुधारा प्रपात 

शिलाएँ

गरूड़गंगा शिला, नारद शिला, मार्कंडेय शिला, नृसिंह शिला, और ब्रह्मकपाल शिला। गरुड़ गंगा के पत्थर को घर में रखने पर सर्प-बाधा दूर हो जाती है।

गुफाएँ

स्कन्द गुफा, गरूड़ गुफा, राम गुफा, मुचकुंद गुफा, गणेश गुफा, व्यास गुफा।

ब्रह्मा कपाल

बद्रीनाथ मंदिर से थोड़ी दूरी पर ब्रह्म कपाली है जहाँ लोग अपने-अपने पितरों का पिंड दान करते हैं, श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर एक बार पितरों का पिंड दान करने पर पुनः फिर पिण्ड दान करने की आवश्यकता नहीं होती एवं पितरों को मुक्ति प्राप्त होकर स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अतः दूर-दूर से लोग यहाँ अपने पितरों का पिंड दान करने आते हैं।

माणा गाँव में मुख्य दर्शनीय स्थल

नीलकंठ चोटी

नीलकंठ चोटी को “गढ़वाल की रानी” के रूप में भी जाना जाता है। यह चोटी बर्फ से ढकी रहती है । बर्फ से ढकी यह चोटी बद्रीनाथ मंदिर की खुबसूरती से चमकती रहती है ।

तप्त कुंड

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, तप्त कुंड अग्नि के देवता का निवास स्थान माना जाता है। इस प्राकृतिक झरने में औषधीय गुण होते हैं और लोग कहते हैं कि इस कुंड के पानी मेंडुबकी लगाने से चर्मरोग ठीक हो जाते है।

व्यास गुफा

जैसा कि नाम से पता चलता है, कि प्रसिद्ध विद्वान और महाभारत महाकाव्य के लेखक महृषि वेद व्यास, प्रसिद्ध चार वेदों की रचना करते समय इस गुफा के अंदर रहते थे। यहाँ एक छोटा मंदिर है, जो उन्हें समर्पित है, यह मंदिर 5000 साल सेअधिक पुराना है।

भीम पुल

भीम पुल, बद्रीनाथ से 4 किमी की दूरी पर भारत के अंतिम गाँव माणा से कुछ ही दूरी पर अलकनंदा नदी के किनारे व सरस्वती नदी के ऊपर बना स्थित है। इसी के उन्नत भाग से सरस्वती निकलकर केशवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है। इस उद्गम स्थल को अलकापुरी कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जब द्रोपदी व पाण्डव स्वर्गारोहिणी जा रहे थे तब पांडवो के रास्ते में सरस्वती नदी पड़ी।

जब पांडवो की विनती करने पर भी सरस्वती नदी ने रास्ता नहीं दिया तो तो महाबली भीम ने एक बड़ी सी शिला को उठाकर नदी के दोनो छोर पर रख दिया व आगे जाने का मार्ग प्रशस्त किया। तभी से इस पुल को भीम पुल के नाम से जाना जाने लगा। सरस्वती नदी पर बने इसी पुल को पार करके पर्यटक वसुधारा झरने की ओर सुगमता से जा पाते हैं। यहाँ आने वाले पर्यटकों को यह भीम पुल आश्चर्यचकित करता है। भीम द्वारा उठाए जाने पर भीम की उंगलियों के छाप आज भी इस भीम पुल की शिला पर देखे जा सकते हैं।

वसुधारा प्रपात

श्री बद्रीनाथ से 4 किमी की दूरी पर भारत के अंतिम गाँव माणा से 5 किलोमीटर दूर पैदल यात्रा मार्ग पर वसुधारा प्रपात स्थित है। ‘वसु’ अर्ताथ भगवान विष्णु और संस्कृत में नदी को  ‘धारा’ कहा जाता है। तो वसुधारा अर्ताथ “भगवान विष्णु का मार्ग”। इस झरने में लगभग 145 मीटर की ऊँचाई से जल गिरता है। इस प्रपात का जल अलकनंदा नदी में बहता है। वसुधारा प्रपात चौखम्बा, नीलकंठ व बालकुन पर्वतों के निकट स्थित है। बद्रीनाथ मंदिर से वसुधारा प्रपात की दूरी लगभग 9 किमी है।

सतोपंथ ताल की श्री बद्रीनाथ से दूरी लगभग 25 किमी है। सतोपंथ ग्लेशियर वसुधारा झरने के ठीक नीचे आगे की ओर स्थित है और वसुधारा से आगे लक्ष्मी वन से होते हुए प्रकृति प्रेमी सतोपंथ ग्लेशियर तक पहुँचते हैं। पाण्डव महाभारत युद्ध के बाद इसी वसुधारा के रास्ते से होकर स्वर्गारोहिणी यात्रा के लिये गए थे। पाँच पाण्डवों में से सहदेव ने इसी वसुधारा के निकट अपने प्राण त्यागे थे।

ऐसी मान्यता है कि इस प्रपात का जल हर किसी व्यक्ति पर नहीं गिरता, जो सच्चे मन से यहाँ की यात्रा करता है उसी के ऊपर इसकी बूँदे गिरती है। और  जिस किसी के ऊपर इसका जल गिरता है वह पुण्यात्मा होती है व उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इतनी अधिक ऊँचाई से गिरते झरने की पानी की बूंदो का नजारा देखने लायक होता है। मन को शांत कर देने वाले वातावरण के बीच श्रद्धालू खुद को पाकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

सतोपंथ झील

सतोपंथ यानी कि सत्य का रास्ता । ऐसा माना जाता है कि इस झील तक पहुंचते-पहुंचते सारे  पांडव अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गए थे इसी स्थान पर भीम की मृत्यु हुई थी। और युधिष्ठिर अकेले ही यहाँ से आगे गए थे क्युकी यहाँ से आगे स्वर्ग की सीढिया हैं । इसीलिए यहाँ से आगे केवल वही जा सकते थे जिसने कभी भी छल, कपट और झूठ न बोला  हो यही वजह है कि इस झील का नाम सतोपंथ पड़ गया।

अभी तक आपने गोल या फिर लंबाई के आकार वाली झील देखी होगी। लेकिन सतोपंथ झील का आकार तिकोना है। मान्यता है कि हर साल यहां पर एकादशी के पावन अवसर पर त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्नान करने आते हैं, इसलिए इसका आकार त्रिभुजाकार यानी कि तिकोना है।

सतोपंथ झील से कुछ दूर आगे चलने पर स्वर्गारोहिणी ग्लेशियर नजर आता है। जिसे स्वर्ग जाने का रास्ता भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस ग्लेशियर पर ही सात सीढ़ियां हैं जो कि स्वर्ग जाने का रास्ता हैं। हालांकि इस ग्लेशियर पर तीन सीढ़यिां ही नजर आती हैं।

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