Dehradun: उत्तराखंड में हर साल चैत्र के महीने में शादीशुदा बहन-बेटियों को मायके से भिटौली भेजने की परंपरा है। इस लोकपर्व का विवाहित महिलाएं सालभर बेसब्री से इंतजार करती हैं। भिटौली किसी एक दिन तक सीमित नहीं होती, बल्कि पूरे चैत्र मास में कभी भी दी जा सकती है। इसमें मायके पक्ष से बहन-बेटियों के लिए पकवान, वस्त्र, आभूषण और अन्य उपहार भेजे जाते हैं।
शादी के बाद बेटी अपने मायके से दूर हो जाती है, इसलिए यह परंपरा उसे यह एहसास दिलाती है कि उसके माता-पिता और भाई उसे याद करते हैं। यह सिर्फ एक उपहार नहीं, बल्कि मायके के स्नेह और अपनत्व का प्रतीक है। भले ही विवाहिता किसी भी संपन्न परिवार में हो, लेकिन मायके से आने वाली भिटौली की मिठास का इंतजार हर बेटी को रहता है।
उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल दोनों क्षेत्रों में इस परंपरा को निभाया जाता है। इस अवसर पर भाई या माता-पिता बेटी के ससुराल जाकर उसे भिटौली सौंपते हैं, जिससे बेटी को मायके का प्रेम और अपनापन महसूस होता है। यह पर्व परिवारिक जुड़ाव और संस्कृति को सहेजने का एक सुंदर उदाहरण है, जो वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी निभाया जा रहा है।
उत्तराखंड में भिटौली पर्व वर्षों से मनाया जा रहा है, लेकिन आधुनिकता का प्रभाव इस परंपरा पर भी दिखने लगा है। पहले भाई या परिवार के लोग स्वयं बहन के ससुराल जाकर उसे भिटौली सौंपते थे और स्नेहपूर्वक इस रीति को निभाते थे। वे बड़े गर्व से कहते थे, “हम अपनी बहन को भिटौली देने आए हैं।”
आज के दौर में यह परंपरा धीरे-धीरे आधुनिक रूप ले रही है। व्यस्त जीवनशैली के चलते अब कई भाई सीधे मिलने के बजाय ऑनलाइन गिफ्ट, पैसे या मिठाइयां भेजकर इस रीति को निभा रहे हैं। डिजिटल युग में यह बदलाव सुविधाजनक जरूर है, लेकिन पारंपरिक भिटौली की आत्मीयता और अपनापन कहीं न कहीं कम होता जा रहा है।
हालांकि, गांवों में अभी भी यह परंपरा अपने पुराने स्वरूप में कायम है। वहां भाई खुद बहन के ससुराल जाते हैं, पकवान, वस्त्र और उपहार देकर उसे मायके के प्रेम का अहसास कराते हैं। भले ही समय के साथ भिटौली का स्वरूप बदल रहा हो, लेकिन इसका भावनात्मक महत्व और परिवार को जोड़ने की परंपरा अब भी जीवंत बनी हुई है।
भिटौली के पीछे कथाएं
पहाड़ों के एक छोटे-से गांव में नरिया और देबुली नामक भाई-बहन रहते थे। दोनों बचपन से ही एक-दूसरे के बहुत करीब थे, लेकिन समय के साथ देबुली का विवाह दूर के गांव में कर दिया गया। विदाई के समय देबुली ने नरिया से वादा किया कि वह उसे मिलने आएगी, परंतु ससुराल की जिम्मेदारियों के कारण वह नहीं आ सकी।
समय बीतता गया और नरिया अपनी बहन को याद कर दुखी रहने लगा। यह देखकर उसकी मां ने एक टोकरी में मिठाइयाँ, फल, कपड़े और घर के बने पकवान रखकर उसे देबुली के ससुराल भेजा। नरिया लंबी यात्रा के बाद वहाँ पहुँचा, लेकिन जब वह पहुँचा तो देबुली गहरी नींद में थी। उसने अपनी बहन को जगाना उचित नहीं समझा और उसके दरवाजे पर टोकरी रखकर लौट आया।
जब देबुली की नींद खुली और उसने अपने मायके से आए पकवानों को देखा, तो वह दौड़कर अपने भाई को बुलाने निकली, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वह पश्चाताप में रोने लगी और कहा— “भै भूखों-मैं सिती…” (भाई भूखा रहा और मैं सोती रही)।
इस दुख के कारण उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि देबुली की आत्मा “घुघुति” नाम की एक पक्षी बनी, जिसकी पुकार आज भी पहाड़ों में सुनाई देती है।
क्या है भिटौली ?
भिटौली का सामान्य अर्थ है भेंट या मुलाकात. उत्तराखंड की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण महिला को लंबे समय तक मायके जाने का मौका नहीं मिलता था. ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली के जरिए भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उससे भेंट करता था.
उपहार स्वरूप पकवान लेकर उसके ससुराल पहुंचता था. भाई-बहन के इस अटूट प्रेम और मिलन को ही भिटौली कहा जाता है. सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी निभाई जाती है. इसे चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे महीने तक मनाया जाता है.
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