एक सेठ के यहाँ एक व्यक्ति काम करता था, जो परम भगवान भक्त था। सेठ उस पर अटूट विश्वास करता और हर महत्वपूर्ण कार्य उसी से करवाता।
भक्त का मन सदा भगवान के भजन, कीर्तन, सत्संग और स्मरण में रमा रहता था।
एक दिन उस भक्त ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम की यात्रा हेतु कुछ दिनों की छुट्टी मांगी। सेठ ने सहर्ष छुट्टी दी और कहा,
“भाई! मैं तो व्यापार में व्यस्त रहता हूँ, कभी तीर्थ यात्रा का लाभ नहीं ले पाया। तुम जा ही रहे हो तो यह 100 रुपए मेरी ओर से प्रभु के चरणों में अर्पित कर देना।”
भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर यात्रा पर निकला। कई दिनों की पैदल यात्रा के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुँचा।
मंदिर की ओर जाते समय उसने देखा – रास्ते में हरि नाम संकीर्तन हो रहा है। संत, भक्त, वैष्णवजन बड़े प्रेम से भगवान का नाम गा रहे हैं।
चारों ओर “हरि बोल! हरि बोल!” की ध्वनि गूंज रही थी, और सभी की आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे।
भक्त भी आनंदपूर्वक उसी संकीर्तन में सम्मिलित हो गया।
कुछ समय बाद उसने देखा कि लम्बे समय से संकीर्तन करते हुए संतजनों के ओष्ठ सूख गए हैं और वे भूख से पीड़ित प्रतीत हो रहे हैं।
उसके मन में विचार आया,
“क्यों न सेठ के सौ रुपए से इन संतों को भोजन कराऊँ? प्रभु सबसे संत सेवा से ही प्रसन्न होते हैं।”
उसने तुरंत सौ रुपए में से 98 रुपए खर्च कर संतों के लिए स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था कर दी।
सभी संत प्रसन्न होकर भगवान का गुणगान करते रहे।
भक्त के पास दो रुपए शेष बचे।
उसने सोचा,
“चलो, इन दो रुपयों को प्रभु श्री जगन्नाथ के चरणों में अर्पित कर दूंगा। सेठ से कह दूंगा कि पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी पूरा हो जाएगा।”
इसके बाद भक्त ने श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश कर प्रभु के दर्शनों का लाभ लिया।
प्रेमपूर्वक प्रभु को निहारते हुए उसने सेठ के नाम से दो रुपए चढ़ा दिए और आनंदपूर्वक वापस लौट आया।
उधर, उसी रात सेठ को स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन हुए।
प्रभु मुस्कुराते हुए बोले,
“सेठ! तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं।”
यह कहकर प्रभु अंतर्ध्यान हो गए।
सेठ जागा तो चकित रह गया —
“मेरा नौकर तो बड़ा ईमानदार है, फिर उसने दो रुपए का क्या किया?”
कई दिनों बाद जब भक्त लौटकर आया, सेठ ने प्रेमपूर्वक पूछा,
“मेरे सौ रुपए भगवान को चढ़ा दिए थे ना?”
भक्त ने सिर झुकाकर उत्तर दिया,
“हाँ सेठ जी, चढ़ा दिए।”
सेठ ने धीरे से पूछा,
“लेकिन 98 रुपए कैसे चढ़ाए? दो रुपए का क्या किया?”
तब भक्त ने पूरी घटना का वर्णन कर दिया —
कैसे उसने संतजनों को भोजन कराया और शेष दो रुपए प्रभु के चरणों में अर्पित किए।
सेठ यह सुनकर गद्गद हो उठा।
उसने भक्त के चरणों में सिर झुका दिया और कहा,
“आप धन्य हैं! आपकी सेवा भावना से मुझे भी बैठे-बैठे प्रभु श्री जगन्नाथ जी के दर्शन हो गए।”
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