श्री माधवदासजी एक प्रसिद्ध वैष्णव संत थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन भगवान श्रीजगन्नाथ की भक्ति में समर्पित था। जब उनकी पत्नी का निधन हुआ, तब उन्होंने इस नश्वर संसार से वैराग्य ले लिया। सांसारिक बंधनों को त्याग, वे प्रभु की शरण में चले गए और सीधे जगन्नाथपुरी की ओर प्रस्थान कर गए।
पुरी पहुँचकर वे समुद्र तट के एकांत कोने में बैठ गए और गहरी ध्यानस्थ अवस्था में लीन हो गए। न उन्हें अन्न-जल की चिंता रही, न तन की सुध; उनके मन-मंदिर में केवल श्रीहरि का ही वास रह गया। कई दिन ऐसे ही बिना भोजन के बीत गए। प्रभु के ऐसे प्रेमी की यह दशा देखकर भक्तवत्सल भगवान श्रीजगन्नाथ विचलित हो उठे।
उन्होंने अपनी अर्धांगिनी, देवी लक्ष्मी को आदेश दिया—”हे देवी, मेरे प्रिय भक्त माधवदास के लिए महाप्रसाद से भरा एक स्वर्ण थाल लेकर जाओ और उनके सामने रख आओ।” आज्ञा शिरोधार्य कर लक्ष्मीजी ने स्वादिष्ट पकवानों से सजा एक सुंदर स्वर्ण थाल तैयार किया और मौन भाव से ध्यानमग्न माधवदासजी के पास जाकर रख आईं।
कुछ समय पश्चात जब माधवदासजी ने नेत्र खोले, तो उनके सामने प्रभु की कृपा मूर्तिमान होकर थाल में विराज रही थी। उस दृश्य को देखकर उनके नेत्र सजल हो उठे। उन्होंने प्रेमपूर्वक भोग स्वीकार किया, प्रभु को धन्यवाद अर्पित किया, और फिर थाल को एक ओर रखकर पुनः ध्यान में लीन हो गए।
उधर अगली सुबह जब मंदिर के पट खुले, तो पुजारियों ने देखा कि भगवान का एक स्वर्ण थाल गायब है। हड़कंप मच गया, और पूरे नगर में खोजबीन शुरू हो गई। अंततः वह थाल माधवदासजी के पास पाया गया। बिना कुछ सोचे-समझे पुजारीगण उन्हें चोर समझ बैठे और निर्दयतापूर्वक उन्हें पीटकर सड़क किनारे छोड़ दिया।
परंतु भगवान अपने भक्त का अपमान सहन नहीं कर सकते। उसी रात भगवान जगन्नाथ पुजारियों के स्वप्न में प्रकट हुए। उनका स्वर क्रोधित था—”माधव की पीड़ा मेरी पीड़ा है। उनके ऊपर उठे प्रत्येक चाबुक मेरे शरीर पर पड़े हैं। यदि तुमने जाकर क्षमा न मांगी, तो विनाश निश्चित है।”
स्वप्न से जागते ही पुजारी भयभीत हो उठे। वे भागे-भागे माधवदासजी के पास पहुँचे, उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा याचना की। माधवदासजी, जिनका हृदय नवनीत-सा कोमल था, उन्होंने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया और प्रेमपूर्वक आशीर्वाद भी दिया।
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