राजस्थान की पवित्र धरती पर जन्म लेने वाली भक्त कर्माबाई को लोग “मारवाड़ की मीरा” भी कहते हैं। जब-जब भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की बात आती है, तब-तब मां कर्मा का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। वे इतनी विशुद्ध भक्ति से पूरित थीं कि स्वयं श्रीकृष्ण उनके हाथ से खिचड़ी का भोग स्वीकार करते और पूरी थाली खाली कर देते।
कर्माबाई का जन्म राजस्थान के नागौर जिले की मकराना तहसील के कालवा गांव में हुआ। उनके पिता जीवनराम एक अत्यंत धार्मिक व्यक्ति और भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक थे। संतान की प्राप्ति के लिए उन्होंने लंबे समय तक तप किया, और अंततः चैत्र मास की एकादशी को उन्हें पुत्री रूप में कर्माबाई प्राप्त हुई।
कर्मा के चेहरे पर जन्म से ही एक दिव्य आभा थी। जीवनराम ने अपने घर में भगवान कृष्ण का एक मंदिर बनवाया था, जहां वे प्रतिदिन पूजा करते और भोग लगाकर ही अन्न ग्रहण करते थे। छोटी सी कर्मा यह सब देखती और सीखती रही। यहीं से उसके मन में भक्ति के बीज अंकुरित होने लगे।
जब कर्माबाई तेरह वर्ष की हुई, तो एक बार उसके माता-पिता तीर्थयात्रा पर पुष्कर जाने लगे। जाने से पहले उन्होंने बेटी को भगवान को प्रतिदिन भोग लगाने की जिम्मेदारी दी। कर्मा ने यह जिम्मेदारी खुशी-खुशी स्वीकार की। अगले दिन उसने स्नान करके बाजरे की खिचड़ी बनाई और प्रभु के सामने भोग की थाली रख दी। हाथ जोड़कर वह बोली –
“हे प्रभु, आपको भूख लगी हो तो भोग ग्रहण कर लीजिए, मैं तब तक घर के और काम कर लेती हूँ।”
परंतु देर तक प्रतीक्षा करने पर भी भोग वैसे का वैसा ही रखा रहा। कर्मा को चिंता हुई कि शायद खिचड़ी स्वादहीन हो। उसने उसमें गुड़ और घी मिलाया, फिर भी भगवान ने भोग नहीं स्वीकारा। आखिर में वह मासूम भक्ति से रोते हुए बोली –
“हे प्रभु, आप नहीं खाएंगे तो मैं भी नहीं खाऊंगी। माता-पिता ने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी है।”
और तभी श्रीकृष्ण की मूर्ति से स्वर आया –
“कर्मा, तुमने मंदिर के पट तो बंद किए ही नहीं, मैं भोग कैसे ग्रहण करता?”
यह सुनकर वह दौड़ी और पट बंद कर दिए। फिर जब उसने पलटकर देखा तो पूरी थाली खाली थी! भगवान श्रीकृष्ण ने खिचड़ी का भोग सचमुच स्वीकार कर लिया था।
अब प्रतिदिन कर्माबाई प्रभु के लिए खिचड़ी बनाती और ठाकुर जी उसकी सच्ची भक्ति से तृप्त हो जाते। इसी बीच उसे लगने लगा, कि उसे सबसे पहले भगवान को भोग लगा देना चाहिए। क्या पता, उन्हें जल्दी भूख लग जाती हो? साफ सफाई, नहाने धोने के कारण भगवान के भोग में देर हो जाती हो। फिर वह सबसे पहले उठकर, भोग बनाती और प्रभु को भोग लगा लेती। फिर अपने दिन भर के काम करती।
जब माता-पिता तीर्थ से लौटे, उन्होंने पूछा –
“पुत्री, भगवान को भोग लगाया था न?”
कर्मा बोली –
“हर दिन! उन्होंने आकर खिचड़ी खाई भी!”
माता रसोई में गईं तो देखा – गुड़ का मटका खाली! पूछा तो कर्मा बोली –
“मैं रोज़ खिचड़ी में ज़्यादा गुड़ डालती थी ताकि प्रभु को स्वाद अच्छा लगे।”
यह सुन माता-पिता चकित रह गए। उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा – “अगर यह सच है तो हमें दिखाओ।”
अगले दिन कर्मा ने भोग बनाया, पट बंद किए और बोली –
“हे ठाकुर जी, मेरे माता-पिता को यकीन नहीं है कि आप सच में आते हो, कृपा करके आज भी पधारिए।”
थोड़ी देर बाद जब पट खुले – थाली खाली थी। माता-पिता की आंखें भर आईं। जिस ईश्वर को पाने के लिए वे तीर्थ कर लौटे थे, वह तो उनकी बेटी की रसोई में खिचड़ी खा रहे थे।
समय बीता, माता-पिता का देहांत हो गया। कर्माबाई अपनी कान्हा की मूर्ति को साथ लेकर तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ी। जहां भी जाती, खिचड़ी बनाती, भगवान को भोग लगाती।
एक दिन वह जगन्नाथपुरी पहुंची। वहीं रहने लगी। एक दिन एक बालक ने आकर कहा –
“माता, घी की सुगंध आ रही है, क्या थोड़ा भोजन मिलेगा?”
कर्मा बोली –
“हां पुत्र, बैठो।” और उसने बालक को खिचड़ी परोसी।
बालक रोज़ आता, खाता, और एक दिन बोला –
“क्या मैं रोज़ आ सकता हूँ?”
कर्मा मुस्कुरा उठी –
“ज़रूर बेटा, जब तक मैं जीवित हूँ, तुझे खिचड़ी खिलाऊंगी।”
एक दिन, जब वह बालक खाना खाकर जा ही रहा था, तभी उसने देखा कि, एक साधु बाबा वहां आकर देवी करमा से कह रहे थे कि “हे देवी! आप बहुत धार्मिक महिला हैं, भगवान को प्रतिदिन भोग लगाकर खाती हैं। परंतु, इन सब के भी नियम होते हैं। आपको बिना नहाए ऐसा नहीं करना चाहिए। आप तो भगवान की परम भक्त लगती है, सो, हे देवी! प्रतिदिन साफ सफाई करने के बाद, नहा धोकर ही भगवान का भोग बनाया करें और लगाया करें।
उस दिन से कर्मा स्नान करके भोग लगाने लगी। मगर अब देरी हो जाती और बालक भूखा रह जाता।
कुछ दिन बाद जगन्नाथ मंदिर में पुजारी ने देखा कि भगवान के होंठों पर खिचड़ी लगी है। वह हैरान हुआ –
“प्रभु कहां से खिचड़ी खाकर आए हैं?”
रात्रि को भगवान जगन्नाथ पुजारी के स्वप्न में आए और बोले –
“मैं अपनी प्रिय भक्त कर्माबाई के यहां खिचड़ी खाने जाता हूँ।”
पुजारी की आंखें भर आईं। कर्माबाई की भक्ति को देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। वही खिचड़ी जो कभी साधारण भोजन थी, अब श्रीकृष्ण का प्रियतम प्रसाद बन चुकी थी।
एक दिन पुजारी जी ने देखा भगवान की आंखों से आंसू बह रहे हैं, और वह भोग ग्रहण नहीं कर रहे। तब उन्होंने मन ही मन फिर से पूछा, हे प्रभु! ऐसा कौन सा अपराध हुआ हमसे कि आपने भोग ग्रहण नहीं किया, और आपकी आंखों से आंसु भी बह रहे हैं। प्रभु! यदि हमसे कोई अपराध हुआ है तो हमें क्षमा करें और भोग ग्रहण करें। आपके भक्तजन प्रसाद के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। फिर क्या था, प्रभु ने प्रसाद ग्रहण कर लिया। परंतु, प्रभु के भोग देर से ग्रहण करने की बात और उनके आंखों से अश्रु बहने की बात पूरे प्रजा में तेजी से फैल गई।
यह बात महाराज तक जा पहुंची। महाराज अति शीघ्र मंदिर पहुंचे और वे पुजारी जी से विचार विमर्श करने लगे, फिर उन दोनों ने भगवान के पास हाथ जोड़कर विनती की, कि ‘प्रभु! कृपया हमें बताएं के इस बात का क्या संदेश है? रात्रि पहर जब वह सो रहे थे, तब भगवान, राजा के सपने में आए और उन्होंने कहा कि मेरी एक अनन्य भक्त थी, करमा बाई जो प्रतिदिन मुझे खिचड़ी का भोग लगाती थी। और मैं, प्रतिदिन उनके यहां बालक रूप में जाकर खाया करता था। परंतु, आज उन्होंने अपने अंतिम स्वास लिए और मुझ में सदैव के लिए लीन हो गई। अब मुझे बालक की तरह प्रेम कर, कौन खिचड़ी खिलाएगा?
यह सुन, महाराज ने सपने में ही, भगवान से कहा कि “प्रभु! आज से प्रतिदिन, आपके भोग में करमा बाई कि खिचड़ी भी चढ़ेगी “ यही सपना उन्होंने अपने दरबार में सुनाया और उसी दिन से भगवान जगन्नाथ के भोग में, करमा बाई कि खिचड़ी भी चढ़ने लगी। यह थी भक्त करमा बाई की कथा और उनकी खिचड़ी से जुड़ी प्रभु की लीला।
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