सतयुग में दंभोद्भवा नामक एक असुर था, जिसे लोग दुरदुंभ भी कहते थे। उसने सहस्त्रों वर्षों तक कठोर तप कर सूर्यदेव को प्रसन्न किया। जब सूर्यदेव प्रकट हुए, तो उसने अमरत्व का वरदान माँगा।
परंतु सूर्यदेव ने कहा – “यह संभव नहीं। जो जन्मा है, उसका अंत निश्चित है।”
तब दुरदुंभ ने एक विचित्र वरदान माँगा –
“मुझे एक सहस्र दिव्य कवच प्रदान हों। प्रत्येक कवच ऐसा हो कि केवल वही उसे भेद सके जिसने एक हजार वर्षों की तपस्या की हो। और जैसे ही कोई मेरा एक कवच भेदे, उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जाए।”
सूर्यदेव ने यह वरदान स्वीकार किया और उसे दिव्य कुंडल भी दिए।
इन अलौकिक शक्तियों से अहंकारी बनकर दुरदुंभ ने तीनों लोकों में अत्याचार मचाया। देवता, ऋषि और मनुष्य सभी उसकी शक्ति से भयभीत हो उठे। तब सभी देवता भगवान विष्णु के चरणों में पहुँचे।
भगवान विष्णु ने कहा – “चिंता मत करो। मैं नर और नारायण के रूप में इस संकट का अंत करूँगा।”
योजना बनी। नर युद्धभूमि में उतरे और नारायण तप में लीन हुए।
जब नर ने युद्ध करते हुए असुर का पहला कवच भेदा, वरदान के अनुसार वे तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो गए। किंतु तभी नारायण ने अपनी तपशक्ति से नर को पुनर्जीवित कर दिया।
अब बारी नारायण की थी। उन्होंने युद्ध किया, दूसरा कवच भेदा और मृत्यु को प्राप्त हुए। इस बार नर ने उन्हें पुनर्जीवित किया।
यह क्रम सहस्त्रों वर्षों तक चलता रहा। एक-एक करके 999 कवच भंग हो गए।
जब केवल अंतिम कवच शेष रह गया, तब दुरदुंभ भयभीत हो उठा। अपनी मृत्यु से डरकर वह भागा और सूर्यदेव की शरण में जा छिपा।
नर-नारायण वहाँ पहुँचे और बोले – “हे सूर्यदेव, इस अधर्मी को हमें सौंप दीजिए।”
पर सूर्यदेव ने कहा – “शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है।”
तब नर-नारायण ने कहा –
“आपने एक अधर्मी को आश्रय दिया है। अब इसका फल आपको भी भोगना होगा। यह असुर द्वापर युग में आपके ही तेज से जन्म लेगा। उस जन्म में यह अंतिम कवच और कुंडल साथ लाएगा, परंतु मृत्यु के समय ये भी इसकी रक्षा नहीं कर पाएँगे।”
और वही असुर द्वापर युग में कुंतीपुत्र कर्ण के रूप में जन्मा। जन्म के साथ ही उसे दिव्य कवच और कुंडल प्राप्त थे।
नियति का लेख अटल था—नर और नारायण ही क्रमशः अर्जुन और श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुए और महाभारत के युद्ध में कर्ण के अंत का कारण बने।
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