शिरडी के साईं बाबा, जिन्हें एक चमत्कारी संत के रूप में पूजा जाता है, की समाधि पर जाने वाला हर भक्त अपनी झोली भरकर लौटता है। साईं बाबा का जीवन और उनके कार्य हमेशा से ही भक्तों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहे हैं। उनका दशहरे या विजयादशमी से एक गहरा और चमत्कारी संबंध है,
शिरडी के साईं बाबा, जिन्हें एक चमत्कारी संत के रूप में पूजा जाता है, के दरबार से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। उनके जीवन और महासमाधि का विजयादशमी, यानी दशहरे के पर्व से एक गहरा और चमत्कारी संबंध है। यह कथा त्याग, वचन और गुरु-शिष्य के अनूठे प्रेम को दर्शाती है। आइए जानते हैं साईं बाबा और दशहरे के इस खास कनेक्शन से जुड़ी चार प्रमुख बातें।
दशहरे के कुछ दिन पहले, साईं बाबा ने अपने एक प्रिय भक्त, रामचंद्र पाटिल को यह बताया था कि विजयादशमी के दिन ‘तात्या’ की मृत्यु हो जाएगी। तात्या, साईं बाबा की एक परम भक्त बैजाबाई के पुत्र थे और बाबा को ‘मामा’ कहकर बुलाते थे। तात्या उस समय बहुत बीमार थे और उनका स्वास्थ्य लगातार गिर रहा था। ऐसा लग रहा था कि उनका बचना मुश्किल है। लेकिन साईं बाबा ने तात्या को जीवनदान देने का निश्चय किया।
बाबा के समाधि लेने से कुछ दिन पहले तात्या की हालत इतनी बिगड़ गई कि उनका जीवित रहना लगभग असंभव लग रहा था। लेकिन साईं बाबा ने तात्या की जगह स्वयं अपने प्राण त्याग दिए। 15 अक्टूबर, 1918 को विजयादशमी (दशहरा) के दिन, साईं बाबा नश्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए, और इस तरह उन्होंने तात्या को एक नया जीवन प्रदान किया।
साईं बाबा के पास एक पुरानी ईंट थी, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे और उसी पर सिर रखकर सोते थे। यह ईंट उनके गुरु वैंकुशा की निशानी थी। एक बार जब कुछ कट्टरपंथियों ने बाबा पर हमला किया, तो उनके गुरु वैंकुशा ने उन्हें बचाने के लिए वार अपने सिर पर ले लिया। जिस ईंट से उन्हें चोट लगी, वही ईंट बाबा ने यादगार के तौर पर अपनी झोली में रख ली। सितंबर 1918 में, दशहरे से कुछ दिन पहले, मस्जिद की सफाई के दौरान एक भक्त के हाथ से वह ईंट गिरकर टूट गई।जब बाबा ने उस टूटी हुई ईंट को देखा, तो उन्होंने शांत भाव से कहा, “यह ईंट मेरी जीवन संगिनी थी। अब जब यह टूट गई है, तो समझो मेरा भी समय पूरा हो गया है।”
जब साईं बाबा को यह आभास हो गया कि उनके संसार से विदा लेने का समय आ गया है, तो उन्होंने अपने भक्त श्री वझे को ‘रामविजय प्रकरण’ का पाठ करने की आज्ञा दी। श्री वझे ने कई दिनों तक लगातार यह पाठ किया। इस पाठ के माध्यम से बाबा ने अपने अंतिम समय की तैयारी की और शांत होकर आत्म-स्थिति में लीन हो गए, मानो वे अंतिम क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों।
27 सितंबर 1918 से साईं बाबा के शरीर का तापमान बढ़ने लगा और उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया।उनकी हालत बिगड़ती देख भक्तों में चिंता व्याप्त हो गई। उसी समय तात्या की तबीयत भी इतनी बिगड़ गई कि उनका बचना असंभव लग रहा था।लेकिन चमत्कार तब हुआ जब 15 अक्टूबर 1918 को विजयादशमी (दशहरे) के दिन, तात्या की जगह साईं बाबा ने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और ब्रह्मलीन हो गए। ऐसा माना जाता है कि बाबा ने अपना वचन निभाते हुए तात्या को अपनी आयु प्रदान की और स्वयं उनकी मृत्यु को स्वीकार कर लिया। जिस दिन साईं ने समाधि ली, वह दशहरे का ही दिन था।
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