एक बार की बात है, जब अर्जुन तीर्थ यात्रा के दौरान दक्षिण भारत के पवित्र स्थल रामेश्वरम पहुंचे। वहीं उन्हें भगवान राम की लीला स्थली का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसी समय उनकी भेंट पवनपुत्र हनुमान जी से हुई।
कुछ ही क्षणों में दोनों में श्रीराम और लंका युद्ध की चर्चा होने लगी। अर्जुन को उस समय अपने धनुर्विद्या पर अत्यंत गर्व था। आत्मविश्वास की सीमा पार कर अहंकार में उन्होंने हनुमान जी से कहा,
“आपके प्रभु राम तो विश्वविजयी वीर थे, फिर उन्होंने वानर सेना से पत्थरों का पुल क्यों बनवाया? यदि मैं होता, तो बाणों से ही ऐसा पुल बना देता जो कभी न टूटे।”
हनुमान जी मुस्कुराए, लेकिन उनका मन विचलित नहीं हुआ। वे बोले,
“पार्थ, बाणों का पुल वानरों के भार को सहन नहीं कर सकता था। यह श्रीराम की लीला थी। किंतु यदि तुम्हें विश्वास है कि तुम ऐसा पुल बना सकते हो, तो एक बार प्रयास करके देखो।”
अर्जुन ने चुनौती स्वीकार कर ली और वहीं एक तालाब के ऊपर बाणों से पुल बना दिया। उन्होंने हनुमान जी से कहा,
“यदि यह पुल आपका भार सह ले, तो मेरी विजय मानी जाएगी, अन्यथा मैं स्वयं अग्नि में प्रवेश कर लूंगा।”
हनुमान जी ने गंभीरता से कहा,
“यदि यह पुल सच में मेरा भार सहन कर ले, तो मैं अग्नि में प्रवेश कर लूंगा।”
यह कहकर हनुमान जी ने अपने विराट रूप का विस्तार किया। जैसे ही उन्होंने पहला पग उस पुल पर रखा, पुल डगमगाने लगा। दूसरे पग के साथ पुल चरमराने लगा। अर्जुन का चेहरा पीला पड़ गया — घमंड दरकने लगा। और जब हनुमान जी ने तीसरा पग रखा, तो तालाब का जल रक्तवर्ण हो गया!
हनुमान जी ठिठक गए। उन्होंने देखा, अर्जुन स्तब्ध खड़ा है। उन्होंने शांत स्वर में कहा,
“अब मैं अग्नि में प्रवेश करूंगा, क्योंकि यह पुल मेरा भार न सह सका।”
अर्जुन ने काँपते हाथों से अग्नि प्रज्वलित की। तभी अचानक प्रभु श्रीकृष्ण प्रकट हुए और बोले,
“रुको, भक्तश्रेष्ठ! यह अग्नि तुम्हारे लिए नहीं है।”
हनुमान जी ने विनम्रता से सिर झुकाया और पूछा,
“प्रभु! यह सब क्या है? रक्त क्यों बहा?”
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले,
“हनुमान, जैसे ही तुमने पहला पग रखा, पुल तो उसी क्षण टूट जाता, परंतु मैंने स्वयं ‘कछुए’ का रूप धारण कर अपनी पीठ से पुल को सहारा दिया। जब तुमने तीसरा पग रखा, मेरी पीठ से रक्त बहने लगा।”
यह सुनते ही हनुमान जी की आँखें भर आईं। वे बोले,
“प्रभु! मैं अपराधी हूँ, मुझसे अनजाने में आपको कष्ट पहुँचा।”
श्रीकृष्ण बोले,
“यह सब मेरी इच्छा से हुआ, ताकि अर्जुन के मन का अहंकार मिट सके और तुम्हारे हृदय की भक्ति का संसार देख सके।”
फिर उन्होंने हनुमान जी से कहा,
“युद्ध भूमि में अर्जुन के रथ की ध्वजा पर तुम विराजमान रहो। जब अर्जुन रणभूमि में होंगे, तो तुम्हारा तेज और मेरी कृपा उसे अजेय बनाएंगे।”
महाभारत युद्ध के समय, जब अर्जुन रण में उतरे, तो उनके रथ के शिखर पर वृकध्वज के रूप में हनुमान जी विराजमान थे — और साथ ही, अर्जुन का हृदय अहंकार से नहीं, भक्ति और समर्पण से परिपूर्ण था।
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