गुरुकुल में शिक्षा समाप्त करने के बाद, सुदामा और श्रीकृष्ण अपने-अपने घर लौट गए। ब्राह्मण सुदामा वेद पाठ करने और भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने लगे, जबकि श्रीकृष्ण द्वारिकाधीश बन गए।
समय बीतने के साथ, सुदामा अत्यंत निर्धन हो गए। जीवन कठिनाइयों से भर गया, लेकिन उनकी सरलता और संतोष का भाव बना रहा। जब यह स्थिति असहनीय हो गई, तब उनकी पत्नी ने उन्हें अपने बचपन के मित्र श्रीकृष्ण से सहायता मांगने की सलाह दी। सुदामा को यह उचित नहीं लगा, लेकिन पत्नी के आग्रह पर, वे द्वारका के लिए रवाना हो गए।
जब श्रीकृष्ण को सुदामा के आगमन का समाचार मिला, तो वे राजसी ठाट-बाट भूलकर नंगे पांव दौड़ते हुए अपने मित्र से मिलने पहुंचे। सुदामा की दयनीय स्थिति देखकर कृष्ण इतने भावुक हो गए कि उनके चरण स्वयं अपने आंसुओं से धोने लगे।
कृष्ण ने स्नेहपूर्वक पूछा – “मित्र, मेरे लिए क्या लाए हो?”
सुदामा संकोच से भर गए और कांपते हाथों से पत्नी द्वारा दी गई चावलों की पोटली श्रीकृष्ण को दे दी। श्रीकृष्ण ने अत्यंत प्रेम से उस पोटली से दो मुट्ठी चावल खाए, और उनकी कृपा से सुदामा के जीवन की सारी दरिद्रता समाप्त हो गई।
जब श्रीकृष्ण तीसरी मुट्ठी खाने को तत्पर हुए, तब उनकी पटरानी रुक्मणी ने उनका हाथ थाम लिया। सब विस्मय से रुक्मणी को देखने लगे। तब उन्होंने विनम्रता से कहा –
“प्रभु, आपने दो मुट्ठी में दो लोक दान कर दिए, यदि तीसरी भी खा ली, तो हम सभी कहां जाएंगे?”
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और सुदामा को प्रेमपूर्वक विदा किया। जब सुदामा अपने घर लौटे, तो देखा कि उनका पुराना झोपड़ा एक भव्य महल में बदल चुका था। वे समझ गए कि यह उनके मित्र श्रीकृष्ण का अपार प्रेम और कृपा है।
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