मुख्य बातें:
नई दिल्ली: पौराणिक कथाओं में भगवान विष्णु के वामन अवतार की कहानी का विशेष महत्व है, जो दिखाती है कि कैसे भगवान ने एक अहंकारी राजा को सबक सिखाया और उसकी भक्ति से प्रसन्न भी हुए। यह कथा असुरों के राजा और प्रह्लाद के पौत्र बलि से जुड़ी है, जो एक महान दानवीर होने के साथ-साथ अपनी शक्तियों पर घमंड भी करता था।
देवताओं पर विजय और वामन का अवतार
सतयुग में राजा बलि ने अपने तपोबल से अपार शक्तियां अर्जित कर ली थीं।उसने देवताओं को युद्ध में पराजित कर स्वर्ग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था।[ इस संकट से उबरने के लिए सभी देवता अपनी माता अदिति के पास गए। माता अदिति ने अपने पति महर्षि कश्यप के कहने पर भगवान विष्णु की तपस्या की, जिसके फलस्वरूप श्रीहरि ने उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। समय आने पर भगवान विष्णु ने एक बौने ब्राह्मण, वामन के रूप में अवतार लिया।
राजा बलि के यज्ञ में पहुंचे वामन
दूसरी ओर, राजा बलि अपने 100वें अश्वमेध यज्ञ का आयोजन कर रहा था ताकि वह हमेशा के लिए इंद्र के पद पर आसीन हो जाए। इसी यज्ञ के दौरान भगवान वामन एक बालक ब्रह्मचारी के रूप में वहां पहुंचे। उनके तेज से प्रभावित होकर राजा बलि ने उनका स्वागत किया और उनसे कुछ भी मांगने को कहा। वामन देव ने विनम्रता से केवल तीन पग भूमि दान में मांगी।
गुरु शुक्राचार्य की चेतावनी और बलि का संकल्प
बलि के गुरु, शुक्राचार्य, तुरंत समझ गए कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं भगवान विष्णु हैं जो बलि को छलने आए हैं। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से रोकने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने बलि को चेतावनी दी कि यह बालक तीन पग में उसका सर्वस्व छीन लेगा। लेकिन अपनी दानवीरता के अहंकार में चूर बलि ने उनकी एक न सुनी और कहा कि यदि भगवान स्वयं उसके द्वार पर याचक बनकर आए हैं तो वह उन्हें खाली हाथ नहीं लौटा सकता।
जब बलि संकल्प लेने के लिए अपने कमंडल से जल निकालने लगा, तो शुक्राचार्य ने छोटा रूप धारण कर कमंडल की टोंटी को बंद कर दिया। वामन देव उनकी यह चाल समझ गए और उन्होंने एक कुशा (पतली लकड़ी) से टोंटी को साफ करने का प्रयास किया, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई और वे बाहर आ गए। इसके बाद बलि ने तीन पग भूमि दान करने का संकल्प ले लिया।
विष्णु का विराट रूप और बलि का समर्पण
संकल्प लेते ही वामन देव ने अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया और एक विराट रूप धारण कर लिया। उन्होंने एक ही पग में पूरी पृथ्वी को नाप लिया और दूसरे पग में स्वर्ग लोक को। इसके बाद उन्होंने राजा बलि से पूछा, “अब मैं तीसरा पग कहां रखूं?”यह देखकर राजा बलि का अहंकार चूर-चूर हो गया।उसने भगवान के सामने अपना सिर झुका दिया और कहा, “प्रभु, तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए।”
बलि की इस दानवीरता और समर्पण को देखकर भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया और वरदान दिया कि वे स्वयं उसके द्वारपाल बनकर रहेंगे।यह कथा अहंकार पर भक्ति और धर्म की विजय का प्रतीक है।
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