उज्जैन के न्यायप्रिय और प्रतापी राजा विक्रमादित्य की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उनके शासन में प्रजा सुख और शांति से जीवन व्यतीत कर रही थी। एक दिन स्वर्गलोक में नवग्रहों के बीच यह विवाद छिड़ गया कि उनमें से सबसे श्रेष्ठ कौन है। जब कोई निष्कर्ष नहीं निकला, तो सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंचे। इंद्र ने इस जटिल प्रश्न का उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाते हुए, सभी को पृथ्वी लोक पर राजा विक्रमादित्य के पास जाने का सुझाव दिया, जो अपने न्याय के लिए विख्यात थे।
देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर राजा विक्रमादित्य ने उनका भव्य स्वागत किया। जब उन्होंने देवताओं के विवाद का कारण सुना, तो वे भी कुछ क्षण के लिए चिंतित हो गए, क्योंकि किसी भी ग्रह को छोटा या बड़ा कहना उनके क्रोध को आमंत्रित कर सकता था। एक युक्ति सोचते हुए, राजा ने नौ सिंहासन बनवाए जो स्वर्ण, रजत, कांस्य, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहे से बने थे। उन्होंने इन सिंहासनों को धातुओं के मूल्य के क्रम में रखवाया और सभी ग्रहों से अपने-अपने धातु के आसन पर विराजमान होने का आग्रह किया।
सूर्य का आसन स्वर्ण का होने के कारण सबसे आगे था, जबकि शनिदेव का आसन लोहे का होने के कारण सबसे अंत में आया। यह देखकर शनिदेव क्रोधित हो गए और इसे अपना अपमान समझा। उन्होंने राजा विक्रमादित्य को चेतावनी देते हुए कहा, “राजन! तुमने मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं किसी भी राशि पर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूँ और मेरे प्रकोप से बड़े-बड़े देवता भी नहीं बच पाए हैं। अब तुम्हें भी मेरे प्रकोप का सामना करना पड़ेगा।”राजा विक्रमादित्य शनिदेव के क्रोध से भयभीत तो हुए, पर उन्होंने इसे भाग्य का लेख मानकर स्वीकार कर लिया।
कुछ समय बाद राजा विक्रमादित्य पर शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव आरंभ हुआ। शनिदेव ने एक घोड़े के व्यापारी का वेश धारण किया और एक अद्भुत घोड़ा लेकर उज्जैन पहुंचे। राजा ने उस घोड़े को खरीद लिया और उसकी सवारी करने के लिए जैसे ही उस पर बैठे, घोड़ा उन्हें तीव्र गति से एक घने जंगल में ले जाकर गायब हो गया। भूख-प्यास से व्याकुल राजा एक नगर में पहुंचे जहाँ एक सेठ ने उन्हें आश्रय दिया। उसी रात, दीवार पर टंगा एक हार खूंटी द्वारा निगल लिया गया। सेठ ने चोरी का आरोप राजा पर लगाया और उन्हें नगर के राजा के सामने प्रस्तुत किया, जिसने दंड के रूप में विक्रमादित्य के हाथ-पैर काटने का आदेश दे दिया।
अपंग अवस्था में, विक्रमादित्य को एक तेली ने अपने कोल्हू पर काम दे दिया। इस कठिन समय में भी राजा ने शनिदेव की स्तुति नहीं छोड़ी। एक रात जब वे मेघ मल्हार गा रहे थे, तो उस नगर की राजकुमारी मनभावनी उनके गायन पर मोहित हो गईं और उनसे विवाह करने का निश्चय कर लिया। राजकुमारी की जिद के आगे राजा को झुकना पड़ा और उनका विवाह अपंग विक्रमादित्य से हो गया।
विवाह के पश्चात, एक रात शनिदेव ने राजा के स्वप्न में आकर कहा, “राजन! तुमने मेरे प्रकोप को देख लिया। मैंने तुम्हें तुम्हारे अहंकार का दंड दिया है।” राजा विक्रमादित्य ने अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी और प्रार्थना की कि जैसा दुःख उन्हें मिला है, वैसा किसी और को न मिले। राजा की भक्ति और धैर्य से प्रसन्न होकर शनिदेव ने उन्हें क्षमा कर दिया। सुबह जब राजा जागे तो उनके हाथ-पैर सही सलामत थे।उन्होंने अपनी असली पहचान बताई, जिसे सुनकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। उसी समय, उस खूंटी ने भी हार उगल दिया। सेठ ने भी अपनी पुत्री का विवाह राजा विक्रमादित्य से कर दिया।
राजा विक्रमादित्य अपनी दोनों रानियों के साथ जब उज्जैन लौटे तो पूरे नगर में उत्सव मनाया गया। उन्होंने घोषणा करवाई कि शनिदेव ही सभी ग्रहों में श्रेष्ठ हैं और प्रजा को उनका व्रत और पूजन करने का आदेश दिया। इस प्रकार, राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव की महिमा को समस्त विश्व में स्थापित किया।
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