Dharam Jyotish

सदना कसाई और चमत्कारी शालिग्राम

सदना नाम का एक कसाई अपनी छोटी सी दुकान चलाता था। उसका पेशा भले ही रक्त और मांस से सना था, पर उसका हृदय भगवन्नाम के अमृत से सराबोर रहता। वह न केवल अपनी ईमानदारी के लिए पूरे बाजार में विख्यात था, बल्कि उसकी जिह्वा पर हर क्षण, हर श्वास के साथ, प्रभु का कीर्तन ऐसे थिरकता रहता, मानो कोई अदृश्य वीणा बज रही हो। मांस काटते, तोलते, ग्राहकों से बात करते – हर क्रिया में उसके होंठ प्रभु-नाम गुनगुनाते रहते, जैसे यह उसके जीवन का अभिन्न अंग हो।

एक सांझ, जब दिन भर की थकान के बाद वह अपनी दुकान बंद कर घर लौट रहा था, उसकी तंद्रा टूटी जब उसके पैर से कोई ठोस वस्तु टकराई। वह रुका, झुककर देखा तो एक चिकना, कृष्ण वर्ण का, गोल-मटोल सा पत्थर था, जो सांझ की हल्की रोशनी में भी एक अनूठी आभा बिखेर रहा था। सदना ने उसे उठाया, उसकी शीतलता और चिकनाहट उसे भली लगी। “यह तो मेरे बाट का काम देगा,” उसने सहज भाव से सोचा और पत्थर को अपनी झोली में डाल लिया।

अगले दिन से सदना ने उस पत्थर को तराजू के एक पलड़े पर बाट के रूप में रखना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में उसे अचंभा होने लगा। यह कोई साधारण पत्थर नहीं था! जब किसी ग्राहक को एक किलो मांस चाहिए होता, तो पत्थर मानो स्वयं को एक किलो के वजन में ढाल लेता। यदि कोई दो किलो मांगता, तो वही पत्थर रहस्यमयी ढंग से दो किलो का हो जाता। न कम, न ज्यादा – एकदम सटीक तौल!

देखते ही देखते यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई – “सदना कसाई के पास चमत्कारी पत्थर है, जो इच्छानुसार वजन का हो जाता है!” उसकी दुकान पर ग्राहकों की कतारें लगने लगीं। लोग मांस खरीदने के साथ-साथ उस अद्भुत पत्थर के दर्शन करने भी आते। सदना की बिक्री कई गुना बढ़ गई, पर उसका स्वभाव वैसा ही सरल और भक्तिमय बना रहा। वह अब भी उसी तल्लीनता से प्रभु-नाम गुनगुनाता, जैसे पत्थर कोई चमत्कार नहीं, बल्कि प्रभु की ही कोई लीला हो।

यह अद्भुत कथा नगर के एक प्रतिष्ठित, कर्मकांडी ब्राह्मण तक भी जा पहुँची। वे स्वभाव से अत्यंत शुद्धतावादी थे और ऐसी ‘अशुद्ध’ जगह, जहाँ नित्य जीव-हिंसा होती हो, जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। किंतु, उस चमत्कारी पत्थर का रहस्य और सदना की भक्ति की चर्चा ने उनके मन में ऐसी प्रबल उत्सुकता जगाई कि वे अपने नियमों को एक ओर रख, स्वयं को सदना की दुकान तक जाने से रोक न सके।

ब्राह्मण दूर एक कोने में खड़े होकर, कुछ घृणा और कुछ विस्मय के साथ, सदना को मांस तोलते देखते रहे। उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि कैसे वह साधारण सा दिखने वाला पत्थर हर बार ग्राहक की मांग के अनुसार अपना वजन बदल रहा था। यह अलौकिक दृश्य देखकर उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। उन्हें आभास हो गया कि यह कोई सामान्य घटना नहीं है। जब भीड़ कुछ कम हुई, तो ब्राह्मण सकुचाते हुए सदना के पास पहुँचे।

अपनी दुकान पर एक ब्राह्मण को आया देखकर सदना आश्चर्यचकित भी हुआ और प्रसन्न भी। उसने तुरंत अपना काम रोका, हाथ धोए और बड़ी विनम्रता से ब्राह्मण को स्वच्छ आसन देकर बैठने का आग्रह किया। “कहिए विप्रवर, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?” सदना ने मधुर वाणी में पूछा।

ब्राह्मण ने गंभीर स्वर में कहा, “वत्स, मैं तुम्हारे इस चमत्कारिक पत्थर के रहस्य को जानने आया हूँ। यूं समझो कि इस पत्थर की शक्ति ही मुझे तुम्हारी इस अशुद्ध स्थान पर खींच लाई है।” फिर बातों ही बातों में उन्होंने सदना को समझाया, “हे सदना! जिसे तुम अज्ञानवश एक साधारण पत्थर समझकर मांस जैसी अपवित्र वस्तु तोल रहे हो, वह वास्तव में साक्षात भगवान विष्णु का स्वरूप, श्री शालिग्राम शिला हैं! इन्हें इस प्रकार रक्त-मांस के मध्य रखना और इनसे यह कार्य करवाना घोर पाप है, महा अनर्थ है!”

ब्राह्मण की बातें सुनकर सदना का सरल हृदय काँप उठा। उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बह निकले। उसे लगा जैसे अनजाने में उसने कितना बड़ा अपराध कर दिया है। वह घुटनों के बल बैठ गया और हाथ जोड़कर बोला, “हे पंडित जी! मुझसे अज्ञान में यह अक्षम्य अपराध हो गया। मैं तो मूर्ख कसाई, क्या जानूँ इन गूढ़ बातों को! आप परम ज्ञानी ब्राह्मण हैं, आप ही इनकी सेवा-पूजा के अधिकारी हैं। कृपा करके इन्हें स्वीकार करें और इनकी यथाविधि परिचर्या करके इन्हें प्रसन्न करें। मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो निःसंकोच बताएं।”

ब्राह्मण ने अत्यंत आदर और सावधानी से वह शालिग्राम शिला सदना से ली और अपने घर ले आए। वहाँ उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से शालिग्राम जी को गंगाजल और पंचामृत से स्नान करवाया, चंदन, पुष्प, तुलसीदल अर्पित किए और धूप-दीप से उनकी भव्य आरती तथा पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी।

कुछ ही दिन बीते थे कि एक रात्रि ब्राह्मण के स्वप्न में स्वयं श्री शालिग्राम जी प्रकट हुए। उनका मुख कुछ उदास था। वे बोले, “हे ब्राह्मण! मैं तुम्हारी निष्ठापूर्ण सेवा और पूजा से प्रसन्न हूँ, किंतु मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा। तुम मुझे उसी सदना कसाई के पास लौटा आओ।”

ब्राह्मण ने स्वप्न में ही आश्चर्य से कारण पूछा, “प्रभु! वह तो कसाई है, अशुद्ध वातावरण में रहता है। मैं तो आपकी षोडशोपचार पूजा करता हूँ, फिर ऐसी क्या बात है?”

शालिग्राम जी ने मधुर किंतु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, “ब्राह्मण! तुम्हारी विधि-विधान युक्त पूजा मुझे स्वीकार है, परंतु जो भक्त अपने हर कर्म में, हर श्वास में मेरा नाम-गुणगान और कीर्तन करते रहते हैं, मैं तो उनके हाथों स्वयं को बेच देता हूँ। सदना तुम्हारी तरह मेरा विस्तृत अर्चन भले न करता हो, पर वह हर समय, हर परिस्थिति में, मेरे नाम में लीन रहता है। उसका वह सहज, निष्कपट नाम-स्मरण मुझे अत्यंत प्रिय है। उसी के निश्छल प्रेम और अनवरत कीर्तन के कारण ही तो मैं स्वयं उसके पास गया था।”

अगले दिन, सूर्य की पहली किरण के साथ ही ब्राह्मण सदना कसाई की दुकान पर पहुँचे। उनकी आँखों में श्रद्धा और समझ का एक नया भाव था। उन्होंने सदना को प्रणाम किया और स्वप्न की सारी घटना विस्तार से बताई। फिर अत्यंत सम्मानपूर्वक श्री शालिग्राम जी को उन्हें सौंपते हुए कहा, “सदना, तुम धन्य हो! तुम्हारी भक्ति सच्ची और अनन्य है। प्रभु को तुम्हारी औपचारिक पूजा नहीं, तुम्हारा अनवरत नाम-स्मरण ही भाता है।”

ब्राह्मण की बातें सुनकर सदना कसाई की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चली। यह प्रभु की कृपा के आँसू थे, कृतज्ञता के आँसू थे। उसका हृदय गद्गद हो गया। उसने मन ही मन उसी क्षण मांस बेचने और खरीदने के कार्य को तिलांजलि देने का दृढ़ निश्चय किया। उसने सोचा, “यदि मेरे ठाकुर को, मेरे प्रभु को मेरा कीर्तन इतना ही प्रिय है, तो अब मैं अपना शेष जीवन अधिकाधिक समय उनके नाम-संकीर्तन में ही बिताऊंगा।”

और उस दिन से, सदना कसाई, संत सदना बन गए, जिनका जीवन भगवन्नाम कीर्तन और भक्ति की एक अमर गाथा बन गया।

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