भगवान श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक माना जाता है। उनकी प्रेम कहानी वृंदावन की गलियों से शुरू होकर अनंत काल के लिए अमर हो गई। शास्त्रों और लोककथाओं में उनके अलौकिक प्रेम का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके जीवन का अंतिम अध्याय अत्यंत मार्मिक और प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाता है। यह वह क्षण था जब श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिय राधा के लिए अंतिम बार बांसुरी बजाई थी। कंस का वध करने के लिए जब श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़कर मथुरा गए, तो राधा और उनका विरह हो गया। इसके बाद राधा का विवाह हो गया और उन्होंने अपनी सभी सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा से निभाया। वहीं, श्रीकृष्ण ने द्वारका में अपना राज्य बसाया और रुक्मिणी तथा सत्यभामा से विवाह किया। इसके बावजूद, राधा और कृष्ण का आध्यात्मिक संबंध अटूट बना रहा।
श्रीकृष्ण की बांसुरी की धुन ही वह माध्यम थी, जो उन्हें हमेशा एक-दूसरे से जोड़े रखती थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब राधा अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में थीं, तो वह अपनी समस्त जिम्मेदारियों से मुक्त होकर आखिरी बार अपने प्रिय कृष्ण से मिलने द्वारका पहुंचीं। जब कृष्ण ने राधा को देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए। राधा के अनुरोध पर, कृष्ण ने उन्हें महल में एक देविका के रूप में नियुक्त कर दिया। राधा दिन भर महल में रहतीं और जब भी अवसर मिलता, वह दूर से ही कृष्ण के दर्शन कर लेती थीं। हालांकि, महल के ऐश्वर्य में उन्हें कृष्ण के साथ वह आध्यात्मिक जुड़ाव महसूस नहीं हुआ जो वृंदावन में होता था। कुछ समय बाद, राधा ने महल छोड़ दिया और द्वारका के पास एक जंगल में एकांत में रहने लगीं। समय के साथ उनका शरीर कमजोर हो गया।
अपने अंतिम क्षणों में, भगवान श्रीकृष्ण उनके समक्ष प्रकट हुए। कृष्ण ने राधा से उनकी कोई अंतिम इच्छा पूछने को कहा। राधा ने पहले तो मना कर दिया, लेकिन कृष्ण के जोर देने पर उन्होंने कहा कि वह आखिरी बार उन्हें बांसुरी बजाते हुए सुनना चाहती हैं।
श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी निकाली और एक बहुत ही मधुर धुन बजानी शुरू कर दी। वह दिन-रात बिना रुके बांसुरी बजाते रहे, और उसी दिव्य संगीत को सुनते-सुनते राधा ने श्रीकृष्ण की गोद में ही अपने प्राण त्याग दिए और आध्यात्मिक रूप से कृष्ण में विलीन हो गईं।
अपनी प्रिय राधा के न रहने पर श्रीकृष्ण को गहरा आघात लगा। उनकी बांसुरी की धुन राधा के प्रेम का प्रतीक थी; राधा के बिना उस बांसुरी का कोई अर्थ नहीं था। प्रेम और विरह की उस चरम अवस्था में, श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी तोड़कर झाड़ियों में फेंक दी और उसके बाद जीवन में फिर कभी कोई वाद्ययंत्र नहीं बजाया। यह उनके अलौकिक प्रेम के प्रतीक के रूप में एक मार्मिक अंत था।
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