ओडिशा के पुरी में प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ को स्नान करवाने की परंपरा है। इस स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ को ठंड लग जाती है और वे बीमार पड़ जाते हैं। इस दौरान उन्हें आयुर्वेदिक काढ़े का भोग लगाया जाता है और वे 15 दिनों तक आराम करते हैं। इन 15 दिनों के लिए मंदिर के कपाट भी बंद कर दिए जाते हैं और भगवान की सेवा की जाती है। जब वे पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं, तब जगन्नाथ यात्रा निकलती है
जब भगवान जगन्नाथ भक्त माधवदास के सेवक बने
एक समय की बात है, माधव दास जी अतिसार से ग्रस्त हो गए। उनकी देह निर्बल हो चुकी थी, और वे उठने-बैठने में भी असमर्थ थे। फिर भी, उनकी आत्मा में अदम्य साहस था। वे अपने सभी कार्य स्वयं करते थे, और किसी से सहायता नहीं मांगते थे। जब कोई उनसे सेवा की इच्छा जताता, तो वे कहते, “नहीं, मेरे जगन्नाथ ही मेरी रक्षा करेंगे।”
जैसे-जैसे उनका रोग बढ़ता गया, वे पूरी तरह से शय्याग्रस्त हो गए। तब एक दिन, श्री जगन्नाथ जी ने सेवक का रूप धारण किया और माधव दास जी के द्वार पर आए। उन्होंने कहा, “मैं आपकी सेवा करूंगा।”
माधव दास जी की दशा ऐसी थी कि वे अपने मल-मूत्र का भी ध्यान नहीं रख पाते थे। उनके वस्त्र अक्सर गंदे हो जाते थे, परंतु भगवान जगन्नाथ ने स्वयं उन्हें साफ किया। वे न केवल वस्त्रों को, बल्कि माधव दास जी के पूरे शरीर को भी स्नान कराते थे। इस प्रकार की सेवा को देखकर यह समझ में आता है कि भगवान की भक्ति में कितनी गहराई और समर्पण होता है।
जब माधव दास जी को होश आया, तो उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि उनके सामने उनके प्रभु ही हैं। एक दिन, उन्होंने प्रभु से पूछा कि जब वे स्वयं त्रिभुवन के स्वामी हैं, तो उन्होंने उनकी सेवा क्यों की और उनके रोग को दूर क्यों नहीं किया। प्रभु ने उत्तर दिया कि वे अपने भक्तों के कष्ट को नहीं सह सकते और प्रारब्ध को भोगना ही पड़ता है। अगर वे माधव दास के रोग को दूर कर देते, तो माधव दास को अगले जन्म में फिर से उसे भोगना पड़ता।
इसलिए, प्रभु जगन्नाथ ने माधव दास के शेष 15 दिनों के रोग को स्वयं ले लिया, जिसके कारण वे आज भी हर साल 15 दिनों के लिए बीमार पड़ते हैं। इस अवधि के दौरान, पुरी के जगन्नाथ मंदिर को बंद कर दिया जाता है, और भगवान को आयुर्वेदिक काढ़े और फलों के रस का भोग लगाया जाता है। वैद्य भी उनकी बीमारी की जांच करने के लिए आते हैं, और उन्हें शीतल लेप लगाया जाता है।
जब भगवान जगन्नाथ पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं, तो उनकी यात्रा निकाली जाती है, जिसे रथ यात्रा कहते हैं। इस दौरान, अनगिनत भक्त उनके दर्शन के लिए उमड़ते हैं। यह मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ अपने भक्तों के दुखों को अपने ऊपर लेने के लिए हर साल खुद बीमार पड़ते हैं।
यह कथा भक्ति और दिव्य करुणा की एक अनूठी मिसाल है, जो हमें यह सिखाती है कि भगवान और भक्त के बीच का संबंध कितना गहरा और अटूट होता है। यह हमें यह भी बताता है कि कैसे भगवान अपने भक्तों के लिए हमेशा उपस्थित रहते हैं, उनकी रक्षा करते हैं, और उनके दुखों को दूर करते हैं।
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