कल्पना कीजिए एक ऐसी जगह की… जहां ईश्वर की इच्छा से बनावट अधूरी रह गई, लेकिन वही अधूरी बनावट उनकी सबसे पवित्र पहचान बन गई. एक ऐसा मंदिर… जो रहस्य की गहराइयों में डूबा है, जिसके दरवाजे सैकड़ों सालों से कई अनकहे राज़ों को अपने भीतर समेटे हुए हैं. क्या आपने कभी सोचा है कि… आखिर क्यों, भगवान की आँखें अधूरी हैं? उनके हाथ-पैर पूरे क्यों नहीं बने? और कौन है वह रहस्यमयी कारीगर, जो रातोंरात गायब हो गया, छोड़ गया बस… ईश्वरीय संकेतों का एक अजूबा?
पुरी का जगन्नाथ धाम… सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि एक जीवंत चमत्कार है. एक ऐसा स्थल जहाँ हर 12 या 19 साल में एक अनूठी रस्म होती है, जब दुनिया भर की बिजली काट दी जाती है, और पुजारियों की आँखों पर पट्टी बांध दी जाती है. क्यों? क्योंकि इस रात, एक ऐसी ‘चीज़’ को बदला जाता है, जिसके बारे में कोई नहीं जानता. वह क्या है… एक आत्मा? एक पदार्थ? या कुछ और ही?
इस मंदिर से जुड़ा हर पत्थर, हर कण, एक अनकही कहानी बयां करता है. ये सिर्फ लकड़ी की मूर्तियाँ नहीं हैं… ये वो देवता हैं जो आज भी ‘ब्रह्म पदार्थ’ के रूप में एक जीवित रहस्य को अपने अंदर समेटे हुए हैं. आज हम आपको ले चलेंगे एक ऐसी यात्रा पर… जहाँ हम खंगालेंगे इस अविश्वसनीय मंदिर के हर कोने में छुपे राज़… जानेंगे उस राजा की कहानी जिसने अधूरी मूर्तियों को भी स्वीकार कर लिया… और उस दिव्य शक्ति का अनुभव करेंगे, जो हर साल रथ यात्रा के रूप में लाखों लोगों को अपनी ओर खींच लेती है. क्या आप तैयार हैं इस अकल्पनीय सत्य का सामना करने के लिए? तो चलिए… चलते हैं पुरी, उस जगह जहाँ आस्था और रहस्य एक साथ नृत्य करते हैं!”
कहानी शुरू होती है, महाभारत के उस विध्वंसकारी युद्ध के अंतिम क्षणों से… जब हस्तिनापुर की महारानी, गांधारी ने अपने सौ पुत्रों, और परिजनों को खो दिया था। इस असहनीय पीड़ा, इस असीमित दुःख में डूबी गांधारी का हृदय क्रोध और विवशता से भर गया था।
उनकी आँखों से अश्रु बह रहे थे, और उन्होंने अपनी पीड़ा में उस दिव्य पुरुष को दोषी ठहराया, जिनके पास सब कुछ रोकने की शक्ति थी – भगवान कृष्ण को। उन्होंने पूरे आक्रोश के साथ भगवान कृष्ण को श्राप दिया, “जिस प्रकार मैंने अपने समस्त कुल का विनाश देखा है, उसी प्रकार तुम भी 36 वर्षों बाद अपने पूरे यदुवंश का सर्वनाश होते देखोगे, और तुम्हारी द्वारका नगरी समुद्र में विलीन हो जाएगी!”
भगवान कृष्ण ने इस श्राप को मौन भाव से स्वीकार किया, क्योंकि वे जानते थे कि ये सब नियति का लिखा है। और जैसा कहा गया था, 36 साल बीतते ही, यादव कुल के भीतर आंतरिक कलह इस हद तक बढ़ गई कि उन्होंने एक-दूसरे का संहार कर दिया। द्वारका नगरी समुद्र की लहरों में समा गई।
सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद, एक दिन, भगवान कृष्ण एक विशाल पीपल वृक्ष के नीचे एकांत में योग निद्रा में लीन थे। उनके लाल, तेजस्वी पैर सूर्य की अंतिम किरणों में चमक रहे थे। तभी जरा नामक एक शिकारी उस जंगल में आया। उसने भगवान कृष्ण के पैर को दूर से एक हिरण की लाल आँख समझ लिया और अपने धनुष पर घातक ‘लुब्धक बाण’ चढ़ाया… और बाण चल पड़ा।
जैसे ही बाण लगा, जरा दौड़कर पास आया, और ये देखकर उसकी साँसें रुक गईं कि उसने एक हिरण को नहीं, बल्कि स्वयं जगतपति भगवान कृष्ण को बाण मारा है! उसका हृदय पश्चाताप से भर गया। वह पैरों में गिरकर बोला, “हे प्रभु! मुझसे महापाप हो गया! मैं इस अज्ञानता का दंड मृत्यु से भी बढ़कर भोगने को तैयार हूँ।”
भगवान कृष्ण ने शांत भाव से मुस्कुराते हुए कहा, “उठो, जरा! तुमने कोई अपराध नहीं किया है। यह सब पूर्व-नियोजित था। त्रेता युग में, जब मैं भगवान राम था, तब मैंने ही तुम्हें, जो वानर राज बाली थे, वृक्ष के पीछे छिपकर बाण मारा था, जो युद्ध के नियम के विपरीत था। यह मेरे अपने कर्मों का फल है, जो आज तुम्हारे हाथों मुझे प्राप्त हुआ है। तुम हर अपराधबोध से मुक्त हो जाओ।”
भगवान कृष्ण के इस वैकुंठ गमन से पूरी पृथ्वी शोकमग्न हो गई। पांडवों को खबर मिली तो अर्जुन दुःख में चूर होकर वहाँ पहुँचे और स्वयं प्रभु के अंतिम संस्कार किए। जब अग्नि शांत हुई, तो सबको अचंभित करने वाला दृश्य सामने आया – प्रभु का पूरा शरीर राख में बदल गया था, सिवाय उनके हृदय के! एक अद्भुत, नीले-दिव्य रंग का पिंड, जो निरंतर धड़क रहा था, जो जीवंत था। यह स्वयं ‘ब्रह्म पदार्थ’ था – स्वयं भगवान श्री कृष्ण की अजेय, असीमित दिव्य चेतना का प्रतीक।
अर्जुन ने इस अलौकिक अंश को अत्यंत आदर के साथ उठाया और एक देवदार की पवित्र लकड़ी के तख्ते पर रखकर, उसे महानदी में प्रवाहित कर दिया। वह दिव्य हृदय, सदियों तक नदी की लहरों पर तैरता रहा, जैसे अपनी अगली दिव्य नियति की प्रतीक्षा कर रहा हो।
कालांतर में, वह अलौकिक पिंड वर्तमान ओडिशा के महानदी के तट पर जा लगा। वहाँ एक प्राचीन शबर आदिवासी समुदाय निवास करता था, जिसके मुखिया परम धार्मिक और दयालु विश्वावसु थे। विश्वावसु ने इस चमकते हुए दिव्य पिंड को देखा, और अपनी अंतरात्मा से वे तुरंत इसकी दिव्यता को पहचान गए। उन्होंने इसे छुपा कर एक गुप्त गुफा में रखा और इसे ‘नीलमाधव’ नाम देकर, एक मूर्ती के रूप में प्रतिदिन गुप्त रूप से इसकी पूजा करने लगे। नीलमाधव उनके जीवन का केंद्र बन गए। शबर समुदाय के अलावा कोई भी बाहरी व्यक्ति इस रहस्यमय नीलमाधव के अस्तित्व और स्थान के बारे में नहीं जानता था।
इसी समय, दूर अवंति नगरी में राजा इंद्रद्युम्न नाम के एक प्रतापी और अत्यंत विष्णु भक्त राजा राज करते थे। उनका एकमात्र स्वप्न था – भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन करना। उनकी इस उत्कंठा को देखकर एक भटकते हुए ऋषि उनके महल में आए और बताया, “राजन! धरती पर, ओडिशा के गहरे वनों में, स्वयं भगवान विष्णु ‘नीलमाधव’ के रूप में प्रकट हुए हैं, और उनकी गुप्त रूप से पूजा हो रही है। आप उन्हें ढूंढें, और आपके जीवन का उद्देश्य पूर्ण होगा।”
यह सुनकर राजा इंद्रद्युम्न का मन खुशी से झूम उठा! उन्होंने तुरंत अपने परम विश्वासी ब्राह्मण, विद्यापति को आज्ञा दी कि वे नीलमाधव की खोज में ओडिशा जाएं।
राजा की आज्ञा पाकर, विद्यापति ने नीलमाधव की खोज में लंबी और कठिन यात्रा की। आखिरकार, वे शबर समुदाय के गाँव तक पहुँच गए। उन्हें गुप्त स्रोतों से पता चला कि विश्वावसु ही नीलमाधव की पूजा करते हैं, पर स्थान गुप्त है। विद्यापति ने बड़ी कुशलता से विश्वावसु से मित्रता की और उनकी पुत्री, ललिता के प्रेम में पड़कर उनसे विवाह कर लिया।
ललिता को अपनी पत्नी बना लेने के बाद, विद्यापति ने उनसे नीलमाधव के दर्शन कराने का अनुरोध किया। अपनी पुत्री के आग्रह पर, विश्वावसु दर्शन कराने को तैयार हुए,
लेकिन एक शर्त रखी: “विद्यापति को आँखों पर पट्टी बांधकर ही लाया जाएगा ताकि वे मार्ग न जान सकें।” विद्यापति मान गए, पर बड़े धूर्त थे;
उन्होंने मार्ग याद रखने के लिए अपनी मुट्ठी में सरसों के दाने छिपा लिए थे, जिन्हें वे धीरे-धीरे मार्ग में गिराते गए।
जैसे ही पट्टी खुली, विद्यापति ने नीलमाधव के उस अनुपम और अद्भुत रूप को देखा – वे स्वयं भगवान विष्णु ही थे, दिव्य ज्योति से आलोकित! वे मंत्रमुग्ध हो गए।
दर्शन करके लौटने के बाद, विद्यापति ने सारी बात राजा इंद्रद्युम्न को बताई। राजा तुरंत अपनी विशाल सेना और ऋषियों के साथ उसी स्थान की ओर बढ़ चले, जहाँ विद्यापति ने सरसों के पौधों से बने रास्ते को दिखाया था। पर दोस्तों, जब वे वहाँ पहुँचे, तो उनका हृदय टूट गया – नीलमाधव वहाँ से अंतर्ध्यान हो चुके थे! खाली गुफा राजा का उपहास कर रही थी।
राजा अत्यंत दुखी हुए। उनकी तपस्या और भक्ति उन्हें विफल होती प्रतीत हुई। लेकिन उसी रात, जब राजा निराश होकर अपने शिविर में सोए थे, तब उन्हें एक अद्भुत स्वप्न आया। स्वयं भगवान विष्णु ने प्रकट होकर कहा, “हे राजन! मुझे तुम अब नीलमाधव के रूप में नहीं देख पाओगे। मेरा समय पूरा हुआ। लेकिन मैं तुमसे प्रसन्न हूँ! मैं शीघ्र ही पुरी के सागर तट पर ‘दारु ब्रह्म’ के रूप में प्रकट होऊँगा। एक विशालकाय, सुगंधित, रक्तवर्णी (लाल रंग की) लकड़ी का लट्ठा समुद्र में तैरता हुआ आएगा। उस पर शंख, चक्र, गदा और पद्म के दिव्य चिह्न बने होंगे। उस पवित्र लकड़ी को बाहर निकालो, उससे तीन मूर्तियां गढ़ो और उनकी आराधना करो। यही मेरा वास्तविक रूप होगा।”
राजा इंद्रद्युम्न ने तुरंत इस स्वप्न का पालन किया। वे अपनी सेना सहित पुरी के तट पर पहुँचे, और वहाँ उन्होंने वास्तव में एक अद्भुत, सुगंधित, विशालकाय लकड़ी का लट्ठा पाया। लेकिन दोस्तों, ये सामान्य लकड़ी नहीं थी। यह इतना भारी और दिव्य था कि राजा के हज़ारों बलशाली सेवक मिलकर भी उसे समुद्र से बाहर नहीं निकाल पाए!
तब राजा को याद आया, भगवान ने आदिवासी नेता विश्वावसु को साथ लाने का भी संकेत दिया था। विश्वावसु और विद्यापति की सहायता से, अंततः उस अलौकिक लट्ठे को महल में लाया गया।
अब चुनौती थी – इससे मूर्तियों का निर्माण करना। राजा ने राज्य के सभी श्रेष्ठ मूर्तिकारों और शिल्पकारों को बुलाया, पर कोई भी उस दिव्य लकड़ी पर अपने औज़ार का एक भी निशान न छोड़ सका! छेनी और हथौड़े लकड़ी को छूते ही टूट जाते थे! चारों ओर निराशा छा गई।
तभी एक अद्भुत, तेजस्वी वृद्ध पुरुष राजा के सामने प्रकट हुआ। वह स्वयं भगवानों के शिल्पी, विश्वकर्मा थे, जो बूढ़े बढ़ई के रूप में आए थे। उन्होंने राजा से कहा, “राजन! मैं इन मूर्तियों का निर्माण कर सकता हूँ, किंतु मेरी एक शर्त है। मुझे एक बंद कमरे में 21 दिनों तक अकेला कार्य करने देना होगा। कमरे से भीतर से छेनी-हथौड़े की आवाज़ें आनी चाहिए, लेकिन यदि 21 दिन पूरे होने से पहले किसी ने भी दरवाजा खोला, तो मैं तुरंत अपना काम बंद कर दूंगा और चला जाऊँगा, और मूर्तियां अधूरी रह जाएंगी।”
राजा इंद्रद्युम्न ने सहर्ष यह शर्त मान ली, और बढ़ई ने दरवाजा बंद कर अंदर काम शुरू कर दिया। बाहर खड़े सभी लोग भीतर से छेनी, हथौड़े की आवाज़ें सुनते थे, जो यह संकेत देती थी कि काम चल रहा है।
लेकिन… 15 दिनों के बाद, भीतर से आवाज़ें आनी अचानक बंद हो गईं। राजा की धर्मपरायण पत्नी, रानी गुंडिचा चिंतित हो उठीं। उन्हें लगा कि शायद वृद्ध कारीगर भीतर बीमार हो गया है या उसे भूख लग गई है। रानी की उत्कंठा और भगवान की मूर्तियों को देखने की आतुरता इतनी प्रबल थी कि वे राजा से आग्रह करने लगीं, “महाराज, दरवाज़ा खोल दीजिए! मुझे डर है कि उस वृद्ध बढ़ई को कुछ हो गया है!” राजा ने उन्हें शर्तों की याद दिलाई, लेकिन रानी की जिद और व्याकुलता के आगे उन्हें झुकना पड़ा।
जैसे ही दरवाजा खोला गया, भीतर का दृश्य देखकर सब स्तंभित रह गए। वृद्ध बढ़ई गायब हो चुका था! और सामने पड़ी थीं… अधूरी, हस्त-पाद-विहीन तीन मूर्तियां! भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा की आज की वैसी ही मूर्तियाँ, अधूरी अवस्था में बनी हुई थीं। राजा का हृदय दुःख से भर गया कि उनकी अधैर्यता के कारण ये लीला अधूरी रह गई।
परंतु, फिर एक आकाशवाणी हुई, जिसने राजा के मन को शांत किया, “राजन! इन मूर्तियों को ऐसे ही स्थापित करो! ये अधूरी नहीं हैं, ये मेरा ‘ब्रह्म रूप’ हैं। मैं इस रूप में स्वयं को बंधन रहित, सम्पूर्ण ब्रह्मांड को अपनी असीम शक्ति से संचालित करने वाला ‘महाप्रभु’ सिद्ध करता हूँ। मेरे हाथ और पैर नहीं हैं, क्योंकि मैं हर सीमा से परे हूँ। मेरे भीतर आज भी मेरा वह जीवंत हृदय ‘ब्रह्म पदार्थ’ के रूप में धड़क रहा है।”
आज भी मान्यता है कि जब राजा इंद्रद्युम्न इन अधूरी मूर्तियों के पास गए, तो उन्होंने जगन्नाथ जी के विग्रह के भीतर से स्वयं हृदय के धड़कने की दिव्य ध्वनि सुनी। यही वो ‘ब्रह्म पदार्थ’ है, जो हर ‘नबकलेबरा’ (भगवान की मूर्तियाँ बदलने की रस्म जो हर 12 से 19 साल में होती है) के दौरान पुराने विग्रह से गुप्त रूप से नए विग्रह में स्थानांतरित किया जाता है – पुजारियों द्वारा आँखों पर पट्टी बांधकर और हाथों में दस्ताने पहनकर, ताकि उस रहस्यमयी ‘ब्रह्म पदार्थ’ का भेद कोई जान न सके। ये स्वयं भगवान कृष्ण का अविनाशी, जीवंत हृदय माना जाता है!
और इस प्रकार, द्वारका में लीला करने वाले योगेश्वर श्री कृष्ण ही ‘दारु ब्रह्म’ जगन्नाथ के रूप में इस धरती पर स्थापित हुए – अनंत, रहस्यमय और भक्तों के लिए सदैव उपलब्ध!
आज पुरी के इस जगन्नाथ धाम में, भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा उसी ‘अधूरे’ रूप में पूजा जाते हैं। वे दुनिया में एकमात्र ‘जीवित देवता’ माने जाते हैं, जो आज भी अपने भक्तों की पुकार सुनते हैं, समझते हैं और उनकी हर इच्छा पूरी करते हैं। इस मंदिर का हर कण एक रहस्य है, और हर प्रथा एक दिव्य लीला का अंश है।
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