नई दिल्ली: देवभूमि उत्तराखंड में कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं जिनका वर्णन पुराणों में भी मिलता है। ऋषि-मुनियों की तपोभूमि पर कई ऐतिहासिक और पौराणिक मंदिर हैं जिनमें हिंदू श्रद्धालुओं की अगाध आस्था है। अल्मोड़ा जिले में ऐसा ही एक धार्मिक स्थल है जागेश्वर धाम। जहां यूं तो सालभर श्रद्धालुओं का आना लगा रहता है लेकिन सावन और महाशिवरात्रि पर यहां जन सैलाब उमड़ता है। जागेश्वर धाम भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से एक है।
कहा जाता है कि यह प्रथम मंदिर है जहां लिंग के रूप में शिवपूजन की परंपरा सर्वप्रथम आरंभ हुई। जागेश्वर को उत्तराखंड का पांचवां धाम भी कहा जाता है। जागेश्वर धाम को भगवान शिव की तपस्थली माना जाता है। यह ज्योतिर्लिंग आठवां ज्योतिर्लिंग माना जाता है। इसे योगेश्वर नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर शिवलिंग पूजा के आरंभ का गवाह माना जाता है। इस धाम का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण और लिंग पुराण में भी मिलता है।
पुराणों के अनुसार भगवान शिव एवं सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी । कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं। ऐसे में मन्नतों का दुरुपयोग होने लगा। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य यहां आए और उन्होंने इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। अब यहां सिर्फ यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं। यह भी मान्यता है कि भगवान श्रीराम के पुत्र लव-कुश ने यहां यज्ञ आयोजित किया था, जिसके लिए उन्होंने देवताओं को आमंत्रित किया। मान्यता है कि उन्होंने ही इन मंदिरों की स्थापना की थी। जागेश्वर में लगभग 250 छोटे-बड़े मंदिर हैं। जागेश्वर मंदिर परिसर में 125 मंदिरों का समूह है। मंदिरों का निर्माण पत्थरों की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है।
जागेश्वर धाम में सारे मंदिर केदारनाथ शैली से बने हुए हैं। अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध इस मंदिर को भगवान शिव की तपस्थली के रूप में भी जाना जाता है। पुरातत्व विभाग के अधीन आने वाले इस मंदिर के किनारे जटा गंगा नदी की धारा बहती है। मान्यता है कि यहां सप्तऋषियों ने तपस्या की थी और यहीं से लिंग के रूप में भगवान शिव की पूजा शुरू हुई थी। खास बात यह है कि यहां भगवान शिव की पूजा बाल या तरुण रूप में भी की जाती है। जागेश्वर धाम में भगवान शिव को समर्पित 124 छोटे-बड़े मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण बड़ी-बड़ी पत्थरों से किया गया है। कैलाश मानसरोवर के प्राचीन मार्ग पर स्थित इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि गुरु आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ के लिए प्रस्थान करने से पहले जागेश्वर के दर्शन किए और यहां कई मंदिरों का जीर्णोद्धार और पुन: स्थापना भी की थी।
जागेश्वर मंदिर की उत्पत्ति के बारे में कोई एक स्पष्ट मत नहीं है। कुछ विद्वान इसका निर्माण 7 वीं शताब्दी में मानते हैं, तो कुछ विद्वानो के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 10 वीं शताब्दी के के दौरान हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी या चंद पहाड़ी राजवंशों के द्वारा किया गया था। लेकिन इन प्रस्तावों का समर्थन या खंडन करने के लिए कोई पाठ्य या अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है। कत्यूरी राजा शालिवाहनदेव के शासनकाल के दौरान इन मंदिरों का जीर्णोद्धार किया गया था। मुख्य मंदिर में मल्ल राजाओं द्वारा लिखा गया एक शिलालेख है। जो जागेश्वर के प्रति उनकी भक्ति को दर्शाता है। कत्यूरी राजाओं ने इस मंदिर के रख रखाव के लिए मंदिर के पुजारियों को रहने के लिए गांव भी दान में दिए था। कुमाऊं के चंद राजाओं को जागेश्वर मंदिर का संरक्षक माना जाता है। बाद में गुर्जर प्रतिहार युग के दौरान कई जागेश्वर मंदिरों का निर्माण या जीर्णोद्धार किया गया था। जो पुजारी इस मंदिर की देखभाल करते हैं, उनको स्थानीय भाषा में पाण्डा कहते हैं।
जागेश्वर मंदिर का निर्माण भगवान शिव जी के प्रमुख मंदिर केदारनाथ मंदिर की शैली में ही हुआ है। इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी शैली में किया गया है। इस मंदिर का निर्माण बड़े-बड़े पत्थरों को काटकर किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव का लिंग विराजमान है, और गर्भगृह के द्वार के ऊपर एक शयनकक्ष है जिसमें तीन मुख वाले भगवान शिव जी की मूर्ति बनाई गई हैं। यह पहला मंदिर है, जिसके सामने स्तंभों पर बनाया गया एक बड़ा स हॉल विराजमान हो, और इस हॉल का उपयोग धार्मिक कार्यों और यहाँ आने वाले तीर्थयात्रियों के आराम करने के लिए किया जाता है। यह मंदिर अपनी ढलाई, दीवारों, स्तम्भों और खंभों पर पाए गए छोटे शिलालेखों के लिए भी उल्लेखनीय है। मुख्य मंदिर के आस पास विभिन्न देवी देवताओं के 124 से भी अधिक मंदिर विराजमान हैं। यह मंदिर पत्थर के लिंगम, पत्थर की मूर्तियां और वेदियों पर नक्काशीओं के लिए अधिक प्रसिद्ध है।
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