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जब अपने भूखे दोस्त के लिए भगवान ने चुराई अपनी ही सोने की थाली!

सोलहवीं सदी की बात है, ओडिशा के जाजपुर नगर में बंधु मोहंती नाम का एक निर्धन व्यक्ति रहता था। उसका तन भले ही गरीबी से ढका था, पर मन ईश्वर की भक्ति में धनी था। उसका असली नाम तो कोई नहीं जानता था, पर भगवान जगन्नाथ के प्रति उसकी अटूट मित्रता और स्नेह ने उसे ‘बंधु’ का नाम दिया था, क्योंकि वह ब्रह्मांड के स्वामी को अपना सबसे प्रिय मित्र मानता था।
बंधु अपनी पत्नी, दो बेटियों और एक बेटे के साथ एक छोटी सी कुटिया में रहता था। उसके पास न कोई जमीन थी, न कोई काम। गाँव वालों से मिली भिक्षा पर ही उसका परिवार पलता था। फिर भी, बंधु के चेहरे पर संतोष की एक अनोखी चमक थी। उसे विश्वास था कि पुरी में बैठा उसका सखा, उसका भगवान, उसकी हर पल सुध ले रहा है।
एक साल जाजपुर में भयंकर अकाल पड़ा। आसमान से बूँदें रूठ गईं, धरती की कोख सूख गई और चारों ओर भूख और निराशा का अंधकार छा गया। जब बंधु के बच्चे भूख से तड़पने लगे, तो उसकी पत्नी ने विवश होकर कहा, “आप हमेशा अपने उस अमीर और दयालु मित्र की बातें करते हैं जो पुरी में रहता है। हम यहाँ भूखे मरने से अच्छा, उसी के पास क्यों नहीं चले जाते?”

पत्नी को यह कहाँ पता था कि उसका पति जिसे मित्र कहता है, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि स्वयं जगत के नाथ, ‘चाका आखी’ (गोल आँखों वाले) भगवान जगन्नाथ हैं।
बच्चों की पीड़ा और पत्नी के आग्रह के आगे बंधु का दिल पिघल गया। वह अपनी छोटी-सी गृहस्थी की समस्याओं से अपने प्रिय मित्र को परेशान नहीं करना चाहता था, पर अब कोई और उपाय न था।
पाँचों लोगों का वह परिवार पुरी की ओर चल पड़ा। चार दिन की कठिन यात्रा के बाद वे भगवान जगन्नाथ की पवित्र नगरी पहुँचे। रात हो चुकी थी और मंदिर अनगिनत दीपों की रोशनी में किसी स्वर्ग के महल की तरह जगमगा रहा था। वे उस अद्भुत दृश्य को देखते ही रह गए।

बंधु अपने परिवार को अपने मित्र के दर्शन कराने भीतर ले जाना चाहता था, पर अपने फटेहाल कपड़ों को देखकर उसके कदम ठिठक गए। वह जानता था कि द्वार पर खड़े पहरेदार उन्हें अंदर नहीं जाने देंगे। इसलिए, उसने बाहर से ही अपने मित्र को प्रणाम किया और रात गुजारने के लिए मंदिर के पीछे ‘पेजानाला’ नामक स्थान पर आश्रय लिया, जहाँ मंदिर की रसोई से बचा हुआ चावल का पानी (माँड़) जमा होता था।
परिवार ने वही पानी पीकर अपनी भूख मिटाई। उस दयनीय दशा को देखकर पत्नी ने ताना मारते हुए कहा, “कहते थे आपका मित्र बहुत प्रभावशाली है। फिर हमें यहाँ क्यों ले आए? क्या वह सिर्फ अपने जैसे अमीरों से ही दोस्ती रखता है?”
बंधु ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “आज मेरे मित्र के घर बहुत मेहमान थे। हम कल सुबह उससे मिलेंगे।”

आधी रात को, जब सब गहरी नींद में थे, किसी ने बंधु का नाम पुकारा। “बंधु!” आवाज़ इतनी मधुर थी कि बंधु हड़बड़ाकर उठ बैठा। चारों ओर घना अँधेरा था। उसे लगा कि वह कोई सपना देख रहा है। पर आवाज़ फिर आई, इस बार और भी साफ़।

उसने देखा कि एक श्याम वर्ण का तेजस्वी ब्राह्मण हाथ में एक बड़ी सोने की थाली लिए खड़ा है। “बंधु,” ब्राह्मण ने कहा, “तुम्हारे मित्र ने तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए यह महाप्रसाद भेजा है। इसे ग्रहण करो। उसने यह भी विश्वास दिलाया है कि सुबह तक तुम्हारे लिए सारी व्यवस्था हो जाएगी।”

बंधु ने अपने परिवार को जगाया और सबने मिलकर अपने जीवन का सबसे स्वादिष्ट भोजन किया। अपने बच्चों को तृप्त होकर खाते देख बंधु की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आए। भोजन के बाद, उसने थाली धोई और उसे लौटाने के लिए ब्राह्मण को ढूँढा, पर वह कहीं नहीं मिला।

बंधु ने थाली को एक कपड़े में लपेटकर अपने पास रख लिया और अपने दयालु मित्र को धन्यवाद देकर सो गया।

अगली सुबह मंदिर में हड़कंप मच गया। भगवान को भोग लगाई जाने वाली सोने की थाली रत्न भंडार से गायब थी! चोरी की खबर पूरे नगर में फैल गई। खुर्दा के राजा, गजपति प्रतापरुद्र ने अपने सैनिकों को थाली की खोज में लगा दिया।

‘पेजानाला’ के पास एक सिपाही ने बंधु और उसके परिवार को सोते हुए देखा। जब उसकी नज़र कपड़े में लिपटी सोने की थाली पर पड़ी, तो उसने बिना सोचे-समझे बंधु को चोर समझकर पकड़ लिया। “दुष्ट! भगवान की पवित्र थाली चुराने की हिम्मत कैसे हुई?” कहकर उसे बंदी बना लिया गया।

जब बंधु कारागार में शांत रहकर अपने मित्र की इच्छा की प्रतीक्षा कर रहा था, तब रत्न सिंहासन पर बैठे भगवान जगन्नाथ अपने भक्त की पीड़ा से व्याकुल हो उठे। उस रात उन्होंने राजा गजपति प्रतापरुद्र को स्वप्न में दर्शन दिए। राजा ने देखा कि स्वयं भगवान अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर उसके महल में आए हैं।
भगवान ने कहा, “हे राजा! मेरा निर्दोष भक्त तुम्हारी जेल में कष्ट सह रहा है और तुम अज्ञान में सो रहे हो। वह चोर नहीं, मेरा अतिथि है। वह सोने की थाली मैंने ही उस तक पहुँचाई थी। तुरंत जाओ और उसे सम्मान सहित मुक्त करो।”

राजा की नींद टूट गई। वह समझ गया कि उससे बहुत बड़ा अपराध हुआ है। वह स्वयं कारागार गया, बंधु को मुक्त किया और उसके साथ हुए अन्याय के लिए क्षमा माँगी।

बंधु और उसके परिवार को नए वस्त्र दिए गए और सम्मान सहित मंदिर के गर्भगृह में ले जाया गया। वहाँ, भगवान के सामने खड़े होकर, बंधु ने अपनी पत्नी से कहा, “मिलो मेरे सबसे प्यारे मित्र, मेरे भगवान से। क्या इससे अधिक शक्तिशाली, धनी और दयालु कोई हो सकता है?”

उसकी पत्नी आश्चर्य और लज्जा से देखती रह गई। उसे अपनी भूल पर गहरा पश्चाताप हुआ कि उसने अपने पति की भक्ति और भगवान की कृपा पर संदेह किया था। उसने भगवान के चरणों में सिर झुकाकर क्षमा माँगी।

बाद में, राजा गजपति ने बंधु मोहंती को मंदिर के खातों का संरक्षक (खरसोधा) नियुक्त किया और उनके परिवार के लिए मंदिर के दक्षिणी द्वार के पास रहने की व्यवस्था की। आज भी बंधु मोहंती के वंशज उसी पद पर रहकर भगवान की सेवा करते हैं।

यह कथा भगवान और भक्त के बीच के अटूट संबंध को दर्शाती है और यह बताती है कि भगवान अपने सच्चे भक्त को कभी नहीं छोड़ते, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विकट क्यों न हों।

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