ज्योतिष में चंद्रमा को मन का कारक कहा गया है. भगवान शिव के सिर पर अर्धचंद्रमा आभूषण की तरह सुशोभित है. इसी वजह से शास्त्रों में शिवजी को सोम और चंद्रशेखर भी कहा जाता है. भगवान शिव के सिर पर विराजमान अर्धचंद्रमा को मन की स्थिरता और आदि से अनंत का प्रतीक माना गया है.
देवों के देव महादेव, भगवान शिव अपने शीश पर चंद्र धारण किए हुए हैं. उनके जिस भी रूप को देखें, उनके मस्तक पर चंद्रमा नजर आते हैं. आखिर ऐसा क्यों है? शिवजी ने क्यों चंद्र को अपने शीश पर धारण किया? पौराणिक कथाओं में इस प्रसंग को लेकर काफी कुछ कहा गया है. एक कहानी शिवपुराण में इस प्रकार है-
समुद्र मंथन के दौरान, जब अमृत के साथ-साथ हलाहल विष भी निकला, तो सभी देवता और राक्षस डर गए। कोई भी उस विष को लेने को तैयार नहीं था, क्योंकि वह बहुत ही घातक था। अंत में, भगवान शिव ने दया करके उस विष को अपने मुँह में ले लिया, लेकिन उसे निगला नहीं। उन्होंने उसे अपने कंठ में रोक लिया, जिससे वह उनके शरीर को नुकसान न पहुंचा सके। इस कारण, उनका कंठ नीला हो गया, और उन्हें नीलकंठ का नाम प्राप्त हुआ।
विष को अपने कंठ में धारण करने के कारण, भगवान शिव का शरीर तपने लगा था, और उनका मस्तिष्क भी बहुत गर्म हो गया था। इससे उन्हें बहुत पीड़ा हुई, और वे अपने शीश पर अपना हाथ रखकर शांति की कोशिश करने लगे। उनके इस दुःख को देखकर, सभी देवता और देवी चिंतित हो गए, और उन्हें शीतल करने का कोई उपाय सोचने लगे।
तब चंद्र देव ने आगे बढ़कर भगवान शिव की सेवा करने का प्रस्ताव रखा। वे कहने लगे कि वे अपनी चाँदनी से भगवान शिव के मस्तक को शीतल कर सकते हैं, और उनकी पीड़ा को कम कर सकते हैं। भगवान शिव ने उनकी विनती स्वीकार कर ली, और उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर लिया। इस प्रकार, चंद्र देव भगवान शिव के मस्तक का आभूषण बन गए, और उन्हें चंद्रशेखर का नाम दिया गया।
इस कथा का आध्यात्मिक अर्थ यह है कि भगवान शिव ने अपने शीश पर चंद्र को धारण करके दिखाया कि वे संसार के सभी दुःखों को अपने में समाहित कर सकते हैं, और फिर भी शांत और आनंदित रह सकते हैं। चंद्र देव उनकी शीतलता, कोमलता, और दया का प्रतीक हैं, जो उन्हें विष के प्रभाव से बचाते हैं।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, चंद्रमा को पुनर्जीवित करने के लिए शिवजी ने अपने मस्तक पर उन्हें धारित किया। दरअसल चंद्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ संपन्न हुआ, जिसमें रोहिणी उनके सबसे समीप थीं। यह देख अन्य कन्याओं ने अपने पिता दक्ष से अपना दुख प्रकट किया। राजा दक्ष के समझाने पर भी जब चंद्रमा नहीं माने तब उन्होंने चंद्रदेव को श्राप दे दिया। जिसके बाद क्षय रोग से ग्रसित होने के कारण धीरे-धीरे चंद्रमा की कलाएं क्षीण होती गईं।
तब इंद्र आदि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषि ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा से कहा- कि तुम देवताओं के साथ प्रभास नामक शुभ क्षेत्र में जाए और वहां मृत्युंजय मंत्र का विधि पूर्वक अनुष्ठान करते हुए भगवान शिव की आराधना करें।अपने सामने शिवलिंग की स्थापना करके वहां चंद्रदेव नित्य तपस्या करें। तदन्तर चन्द्रमा ने भक्तिभाव से भगवान् शंकर की स्तुति की। भगवान् शकर ने चंद्रदेव की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें साकार रूप में दर्शन दिए और प्रदोष काल में चंद्रमा को वरदान दिया कि चंद्रदेव!एक पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी कला क्षीण होगी लेकिन दुसरे पक्ष में निरंतर बढ़ती रहे। जिससे चंद्रमा मृत्युतुल्य होते हुए भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए और फिर धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे और पूर्णमासी पर पूर्ण चंद्रमा के रूप में प्रकट हुए।इतना ही नहीं शिवजी ने प्रसन्न होकर चन्द्रमा को अपने शीश पर भी सुशोभित किया।
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